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[११] गया है। हिंदुओं के 'स्मृतिरनाकर' ग्रंथ में यह श्लोक बिलकुल ज्यो का त्यों पाया जाता है, सिर्फ अन्तिम चरण का भेद है । अंतिमचरण वहाँ 'नरकेषु निमबति' (नरकों में पड़ता है ) दिया है । बहुत सम्भव हैं भट्टारकजी ने इसी अंतिमचरण को बदल कर उसके स्थान में 'मन्ते नैव स्मरोजिनम्' बनाया हो । यदि ऐसा है तब तो इस परिवर्तन से इतना जरूर हुआ है कि कुछ सजा कम हो गई है । नहीं तो बेचारे को, सात जन्म तक दरिद्री रहने के सिवाय, नरकों में और आना पड़ता !! परंतु इस पद्य का एक दूसरा रूप भी है जो मुहूर्त चिंतामणि की 'पीयूषधारा' टीका में पाया जाता है । उसमें और सब बातें तो ज्यों की त्यों हैं, सिर्फ 'अनिधाय मुखे' की जगह 'अशास्रविधिना' (शास्त्रविधि का उल्लंघन करके ) पद का प्रयोग किया गया है और अंतिम चरण का रूप 'अन्ते विष्णुं न संस्मरेत् (अंत में उसे विष्णु भगवान् का स्मरण नहीं होता ) ऐसा दिया है। इस मंतिमचरण पर से भट्टारकजी के उक्त चरण का रचा जाना और भी ज्यादा स्वाभाविक तया संभावित है। हो सकता है भट्टारकजी के सामने हिन्दू ग्रंथों के ये दोनों ही पद्य रहे हों और उन्होंने उन्हीं पर से अपने पद्य का रूप गदा हो । परंतु कुछ भी हो, इसमें संदेह नहीं कि जैनसिद्धान्तों के विरुद्ध होने से उनका यह सब कथन जैनियों के द्वारा मान्य किये जाने के योग्य नहीं है ।
जनेऊ की अजीव करामात ।
(१८) ' यज्ञोपवीत ' नामक अध्याय में, भट्टारकजी ने जनेऊ की करामात का जो वर्णन दिया है उससे मालूम होता है कि यदि किसी को अपनी आयु बढ़ाने की-अधिक जीने की-छा हो तो उसे दो या तीन जनेऊ अपने गले में डाल लेने चाहियें-आयु बढ़ जायगी
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