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[१३३] और स्नान, दान, जप, यज्ञ तथा स्वाध्याय करते हुए दोनों हाथों में या तो दर्भ के नाल रखने चाहिये और या पवित्रक ( दर्भ के बने छल्ले.) पहनने चाहिये । यथा
द्वौ दौं दक्षिणे हस्ते सर्वदा नित्यकर्मणि ॥ स्त्राने दाने जपे यज्ञे स्वाध्याय नित्यकर्मणि । सावित्री सदर्भो वा करौ कुर्वीत नान्यथा ॥६५॥ दर्भ विना न कुर्वीत च। चमं जिनपूजनम् ।
जिनयज्ञ जपे होम ब्रह्मपन्धिर्विधीयते ॥६७ ॥ इससे जाहिर है कि भट्टारकजी ने जिनपूजनादिक को निलक के ही नहीं किन्तु दर्भ के भी बंधुए माना है !
आपकी यह मान्यता भी, तिलक सम्बंधी उक्त मान्यता की तरह, जैन शासन के विरुद्ध है । जैनों का आचार विचार भी आम तौर पर इसके अनुकूल नहीं पाया जाता अथवा यों कहिये कि 'दर्भ हाथ में लेकर ही पूजनादिक धर्मकृत्य किये जायें अन्यथा न किये जायँ ' ऐसी जैनाम्नाय नहीं है । लाखों जैनी बिना दर्भ के ही पूजनादिक धर्मकृत्य करते
आए हैं और करते हैं । नित्य की · देवपूजा' तथा यशोनन्दि आचार्य कृत 'पंचपरमेष्ठि पूजापाठ' आदिक ग्रंथों में भी दर्भ की इस आवश्यकता का कोई उल्लेख नहीं है । हाँ, हिन्दुओं के यहाँ दर्भादिक के माहात्म्य का ऐसा वर्णन जरूर है-वे तिलक और दर्भ के बिना स्नान, पूजन तथा संध्योपासनादि धर्मकृत्यों का करना ही निष्फल समझते हैं; जैसा कि उनके पद्मपुराण ( उत्तर खण्ड ) के निम्न वाक्य से प्रकट है
स्नान संध्यां पंच यज्ञान् पैत्रं होमादिकम यः। बिना तिलकदीभ्यां कुर्यात्तनिष्कलं भवेत् ।
-शब्दकल्पद्रुम ।
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