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[१३४] वह जैनसिद्धान्त तथा जैननीति के बिल्कुल विरुद्ध है और किसी भी माननीय प्राचीन जैनाचार्य के वाक्य से उसका समर्थन नहीं होता। एक जनेऊ पहन कर तो क्या. यदि कोई बिना जनऊ पहने भी सच्चे हृदय से भगवान की पूजा-भक्ति में लीन हो जाय, मन लगाकर स्वाध्याय करे, किसी के प्राण बचा कर उसे अभयदान देवे, सदुपदेश देकर दूसरों को सन्मार्ग में लगाए अथवा सत्संयम का अभ्यास करे तो यह नहीं हो सकता कि उसे सत्फल की प्राप्ति न हो। ऐसा न मानना जैनियों की कफ़िलॉसॉफ़ी अथवा जैनधर्म से ही इनकार करना है। जैनधर्मानुसार मन-वचन-काय की शुभ प्रवृत्ति पुण्य का और अशुभ प्रवृत्ति पाप का कारण होती है-वह अपने उस फल के लिये यज्ञोपवीत के धागों.की साथ में कुछ अपेक्षा नहीं रखती किन्तु परिणामों से खास सम्बन्ध रखती है। सैकड़ों यज्ञोपवीत (जनेऊ) धारी महापातकी देखे जाते हैं और बिना यज्ञोपवीत के भी हजारों व्यक्ति उत्तर भारतादिक में धर्मकृत्यों का अच्छा अनुष्ठान करते हुए पाये जाते हैं- स्त्रियाँ तो बिना यज्ञोपवीत के ही बहुत कुछ धर्मसाधन करती हैं । अतः धर्म का यज्ञोपवीत के साथ अथवा उसकी पंचसंख्या के साथ कोई अविनाभावी सम्बन्ध नहीं है । और इस लिये भट्टारकजी का उक्त कथन मान्य किये जाने के योग्य नहीं।
तिलक और दर्भ के बँधुए। ( १६ ) चौथे अध्याय में, ' तिलक ' का विस्तृत विधान और उसकी अपूर्व महिमा का गान करते हुए, गट्टारकजी लिखते हैं:
जपो होमस्तथा दानं स्वाध्यायः पितृतर्पणम् । जिनपूजा श्रुताख्यानं न कुर्यात्तिलकं बिना ॥ ८५ ॥
अर्थात्--तिलक के बिना जप, होम, दान, स्वाध्याय, पितृतर्पण जिनपूजा और शास्त्र का व्याख्यान नहीं करना चाहिये । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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