________________
[१३७] इसी तरह उनके ब्रह्माण्डपुराण में तिलक को वैष्णव का रूप बतलाया है और उसके बिना दान, जप, होम तथा स्वाध्यायादिक का करना निरर्थक ठहराया है । यथा
कर्मादौ तिलकं कुर्यादूगं तद्वैष्णवं परं ॥ गो प्रदानं जपो होमः स्वाध्यायः पितृतर्पणम् । भस्मीभवति तत्सवं मूर्ध्वपुण्ड्रं पिना कृतम् ॥
-शब्दकल्पद्रुम। हिन्दूग्रंथों के ऐसे वाक्यों पर से ही भट्टारकजी ने अपने कथन की सृष्टि की है जो जैनियों के लिये उपादेय नहीं है।
यहाँ पर मैं अपने पाठकों को इतना और भी बतला देना चाहता हूँ कि भट्टारकजी ने तिलक करने का जो विधान किया है वह उसी * चंदन से किया है जो भगवान के चरणों को लगाया जावे-अर्थात् , मगवान के चरणों पर लेप किये हुए चंदन को उतार कर उसमे तिलक करने की व्यवस्था की है । साथ ही, यह भी लिखा है कि 'अँगूठे से किया हुआ तिलक पुष्टि को देता है, मध्यमा अँगुली से किया हुआ यश को फैलाता है, अनामिका ( कनिष्ठा के पास की अँगुली ) से किया गया तिलक धन का देने वाला है और वही प्रदेशिनी (अँगूठे के पास की अंगुली ) से किये जाने पर मुक्ति का दाता है !! x यह सब व्यवस्था भी कैसी विलक्षण है, इसे पाठक स्वयं समझ
* यथा:___ “जिनांधिचन्दनैः स्वस्य शरीरं लेगमाचरेत् .........७६१॥
"बनाटे तिलकं कार्य तेनैव चन्दनेन च ॥ ६३ ॥ x यथा:
अंगुष्ठः पुष्टिदः प्रोक्तो यशस मध्यमा [मध्यमायुष्करी] भवेत् । अनामिका धियं [ऽर्थदा] दद्यात् [ नित्यं] मुक्ति दद्यात्
[मुक्तिदा च ] प्रदेशिनी ॥२॥ १८ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com