________________
[१३० - अर्थात्-जो मनुष्य मुख में पान न रखकर-बिना पान के हीसुपारी खाता है वह सात जन्म तक दरिद्री होता है और अन्त में-- मरते समय-उसे जिनेन्द्र भगवान का स्मरण नहीं होता ।
पाठकगण ! देखा, कैसी विचित्र व्यवस्था और कैसा अद्भुत न्याय है ! कहाँ तो अपराध और कहाँ इतनी सख्त सजा !! इस धार्मिक दण्डविधान ने तो बड़े बड़े अन्यायी राजाओं के भी कान काट लिये !!! क्या जैनियों की कर्म फिलॉसॉफ़ी और जैनधर्म से इसका कुछ सम्बन्ध हो सकता है ? कदापि नहीं । सुपारी के साथ दरिद्र की इस विलक्षण व्याप्ति को मालूम करने के लिये जैनधर्म के बहुत से सिद्धान्त-ग्रन्थों को टटोला गया परंतु कहीं से भी ऐसा कोई नियम उपलब्ध नहीं हुआ जिससे यह लाजिमी आता हो कि सुपारी पान की संगति में रहकर तो दरिद्र नहीं करेगी परंतु अलग सेवन किये जाने पर वह सात जन्म तक दरिद्र को खींच लाने अथवा उत्पन्न करने में अनिवार्य रूप से प्रवृत्त होगी, और अन्त को भगवान का स्मरण नहीं होने देगी सो जुदा रहा। कितने ही जैनी, जिन्हें पान में साधारण वनस्पति का दोष मालूम होता है, पान नहीं खाते किन्तु सुपारी खाते हैं; अनेक पण्डितों और पंडितों के गुरु माननीय पं० गोपालदासजी बरैया को भी पान से अलग सुपारी खाते हुये देखा गया परंतु उनकी बाबत यह नहीं सुना गया कि उन्हें मरते समय भगवान का स्मरण नहीं हुआ । इससे इस कथन का वह अंश जो प्रत्यक्ष से सम्बंध रखता है प्रत्यक्ष के विरुद्ध भी है । और यदि उसी जन्म में भी दरिद्र का विधान इस पद्य के द्वारा इष्ट है तो वह भी प्रत्यक्ष के विरुद्ध है; क्योंकि बहुत से सेठमाहूकार भी बिना पान के सुपारी खाते हैं और उनके पास दरिद्रं नहीं फटकता ।
--
1
मालूम होता है यह कथन भी हिन्दू धर्म के किसी ग्रंथ से लिया
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com