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एक वस्त्र में भोजन - भजनादिक पर आपत्ति ।
(१६) एक स्थान पर भट्टारकजी लिखते हैं कि एक वस्त्र पहन कर भोजन, देवपूजन, पितृकर्म, दान, होम, और जप आदिक (स्नान, स्वाध्यायादिक) कार्य नहीं करने चाहिये । खंड वस्त्र पहन कर तथा वस्त्र पहन कर भी ये सब काम न करने चाहियें । यथा --
एकवस्त्रो न भुंजीत न कुर्याद्देवपूज [ तार्च ] नम् ॥ ३-३६ ॥ न कुर्यात्पितृकर्मा [ कार्या ] णि दानं होमं जपादिकम् [पं तथा ] खण्डवस्त्रावृतश्चैव वस्त्रार्धप्रावृतस्तथा ॥ ३७ ॥
परन्तु क्यों नहीं करने चाहियें ? करने से क्या हानि होती है अथवा कौनसा अनिष्ट संघटित होता है ? ऐसा कुछ भी नहीं लिखा ! क्या एक वस्त्र में भोजन करने से वह भोजन पचता नहीं ? पूजन या भजन करने से वीतराग भगवान भी रुष्ट हो जाते हैं अथवा भक्तिरस उत्पन्न नहीं हो सकता ? आहारादिक का दान करने से पात्र की तृप्ति नहीं होती या उसकी क्षुधा आदि को शांति नहीं मिल सकती ! स्वाध्याय करने से ज्ञान की संप्राप्ति नहीं होती ? और परमात्मा का ध्यान करने से कुशल परिणामों का उद्भव तथा आत्मानुभवन का लाभ नहीं हो सकता ? यदि ऐसा कुछ नहीं है तो फिर एक वस्त्र में इन भोजनभजनादिक पर आपत्ति कैसी ? यह कुछ समझ में नहीं आता !! जैनमत में उत्कृष्ट श्रावक का रूप एक वस्त्रधारी माना गया है - इसीसे 'चेलखण्डधरः 'वस्त्रैकधरः', 'एकशाटकघरः', 'कौपीनमात्रतंत्रः' आदि नामों या पदों से उसका उल्लेख किया जाता है -- और वह अपने उस एक वस्त्र
* आदिक शब्द का यह श्राशय ग्रंथ के अगले 'स्नानं दानं जपं होमं' नाम के पद्य पर से ग्रहण किया गया है जो 'उक्तच' रूप से दिया है और संभवतः किसी हिन्दू-ग्रंथ का ही पद्य मालूम होता है ।
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