________________
[१२] यातुधानाः पिशाचाच त्वसुरा राक्षसास्तण।
प्रन्ति ते [वै] बनमन्त्रस्य मण्डलेन विवर्जितम्॥ १६५ ॥ अर्थात्-ब्राह्मणादिक को क्रमशः चतुष्कोण, त्रिकोण, गोल और मर्धचन्द्राकार मंडल बनाने चाहिये । मंडन के बिना भोजन की शक्ति को यातुधान, पिशाच, भसुर और राक्षस देवता नष्ट कर डालते हैं।
ये दोनों रलोक भी हिन्दू-धर्म से लिये गये हैं। पहले श्लोक को मान्हिकसूत्रावलि में 'ब्रह्मपुराण' का वाक्य लिखा है और दूसरे को 'स्मृतिरत्नाकर' में 'मात्रेय ऋषि का वचन सूचित किया है और उसका दूसरा चरण 'ह्यसुराश्चाथ राचसाः' दिया है, जो बहुत ही साधारण पाठभेद को लिये हुए है ।
इस तरह भट्टारकजी ने हिन्दू-धर्म की एक व्यवस्था को उन्हीं के शब्दों में अपनाया है और उसे जैनव्यवस्था प्रकट किया है, यह बड़े हा खेद का विषय है ! जैनसिद्धान्तों से उनकी इस व्यवस्था का भी कोई समर्थन नहीं होता । प्रत्युत इसके, जैनदृष्टि से, इस प्रकार के कथन देव. ताओं का प्रवर्णवाद करने वाले हैं-उन पर मूठा दोषारोपण करते हैं। जैनमतानुसार व्यन्तरादिक देवों का भोजन भी मानसिक है, वे इस तरह पर दूसरों के भोजन को चुराकर खाते नहीं फिरते और न उनकी शक्ति ही ऐसे निःसत्व काल्पनिक मंडलों के द्वारा रोकी जा सकती है। अतः ऐसे मिथ्यात्ववर्धक कथन दूर से ही त्याग किये जाने के योग्य हैं।
x दूसरे श्लोक का एक रूपान्तर भी 'मार्कण्डेयपुराण' में पाया जाता है और वह इस प्रकार है
यातुधानाः पिशाचाय कराव तु राक्षसाः हरन्ति रसमजं च मंडलेन विवर्जितम् ।।
-मानिकसूत्रावलि ।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com