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[१९५] को बुरा अथवा इस प्रकार के दुष्परिणामों का कारण नहीं बतलाया है बल्कि 'उत्तम' तथा 'प्रशस्त' आसन लिखा है । और इसलिये आसन की उक्त फल-कल्पना अधिकांश में भट्टारकजी की प्रायः अपनी ही कल्पना जान पड़ती है, जो निराधार तथा निःसार होने से कदापि मान्य किये जाने के योग्य नहीं। और भी कुछ आसनों का फल भट्टारकजी की निजी कल्पना द्वारा प्रसूत हुआ जान पड़ता है, जिसके विचार को यहाँ छोड़ा जाता है।
जूठन न छोड़ने का भयंकर परिणाम । (१४) बहुत से लोग, जिनमें त्यागी और ब्रह्मचारी भी शामिल हैं, यह समझे हुए हैं कि जूठन नहीं छोड़ना चाहिये-कुत्ते को भी अपना जूठा भोजन नहीं देना चाहिये- और इसलिये वे कभी जूठन नहीं छोड़ते। उन्हें यह जानकर आश्चर्य होगा कि भट्टारकजी ने ऐसे लोगों के लिये जो खा पीकर बरतन खाली छोड़ देते हैं-उनमें कुछ जूठा भोजन तथा पानी रहने नहीं देते--यह व्यवस्था दी है कि वे जन्म जन्म में भूख प्यास से पीड़ित होंगे; जैसा कि उनके निम्न व्यवस्था-पद्य से प्रकट है:
भुक्त्वा पीत्वा तु तत्पात्रं रिक्तं त्यजति यो नरः ।
स नरः क्षुत्पिपासातॊ भवेजन्मनि जन्मनि ॥६-२२५॥ मालूम नहीं भट्टारकजी ने जूठन न छोड़ने का यह भयंकर परिणाम कहाँ से निकाला है ! अथवा किस आधार पर उसके लिये ऐसी दण्डव्यवस्था की घोषणा की है !! जैन सिद्धान्तों से उनकी इस व्यवस्था का कोई समर्थन नहीं होता--कोई भी ऐसा व्यापक नियम नहीं पाया जाता जो ऐसे निरपराधियों को जन्म जन्म में भूख प्यास की वेदना से पीड़ित रखने के लिये समर्थ हो सके। हाँ, हिन्दू धर्म की ऐसी कुछ कल्पना जरूर है और उक्त पद्य भी प्रायः हिन्दू धर्म की ही सम्पत्ति जान पड़ता है। वह साधारण से पाठ-भेद के साथ उनके स्मृतिरत्नाकर में उद्धृत मिलता है। वहाँ इस पद्य का पूर्वार्ध 'भुक्त्वा पीत्वा च यो मर्त्यः शून्यं
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