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आसन की अनोखी फलकल्पना |
( १३ ) तीसरे अध्याय में, संध्योपासन के समय चारों ही आश्रम वालों के लिये पंचपरमेष्ठी के जप का विधान करते हुए, भट्टारकजी ने कुछ आसनों का जो फल वर्णन किया है उसका एक श्लोक इस प्रकार है:
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वंशासने दरिद्रः स्यात्पाषाणे व्याधिपीड़ितः । धरण्यां दुःखसंभूतिर्दोर्भाग्यं दारुकासने ॥ १०७ ॥ इस श्लोक में यह बतलाया गया है कि ' ( जप के समय) बाँस के आसन पर बैठने से मनुष्य दरिद्री, पाषाण के आसन पर बैठने से व्याधि से पीड़ित, पृथ्वी पर ही आसन लगाने से दुःखों का उत्पन्न - कर्ता और काष्ठ के आसन पर बैठने से दुर्भाग्य से युक्त होता है ।'
आसन की यह फलकल्पना बड़ी ही अनोखी जान पड़ती है ! मालूम नहीं, भट्टारकजी ने इसका कहाँ से अवतार किया है !! प्राचीन ऋषिप्रणीत किसी भी जैनागम में तो ऐसी फल व्यवस्था देखने में आती नहीं !! प्रत्युत इसके,' ज्ञानार्णव' में योगिराज श्रीशुभचंद्राचार्य ने यह स्पष्ट विधान किया है कि 'समाधि ( उत्तम ध्यान) की सिद्धि के लिये काष्ठ के पट्ट पर, शिलापट्ट पर, भूमि पर अथवा रेत के स्थल पर सुदृढ आसन लगाना चाहिये ।' यथा:-- दारुपट्टे शिलापट्टे भूमौ वा सिकतास्थले ।
समाधिसिद्धये धीरो विदध्यात्सुस्थिरासनम् ॥ २८-६ ॥ पाठकगण ! देखा, जिन काष्ठ, पाषाण तथा भूमि के आसनों को योगीश्वर महोदय ने समाधि जैसे महान कार्य के लिये अत्यंत उपयोगी उसकी सिद्धि में खास तौर से सहायक — बतलाया है उन्हें ही भट्टारकजी क्रमशः दौर्भाग्य, व्याधि और दुःख के कारण ठहराते हैं ! यह कितना विपर्यास अथवा आगम के विरुद्ध कथन है । उन्हें ऐसा प्रतिपादन करते हुए इतना भी स्मरण न हुआ कि इन आसनों पर बैठकर असंख्य योगीजन सद्गति अथवा कल्याण-परम्परा को प्राप्त हुए हैं। अस्तु; हिन्दूधर्म में भी इन आसनों
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