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[१२०] स्त्रियों तथा नौकरों को मलिनता का पुंज समझते है जो उनके स्पर्श से धौत वस्त्र भी अधौत हो जाते हैं ? यदि ऐसा है तब तो बड़ी गड़बड़ी मचेगी और घर का कोई भी सामान पवित्र नहीं रह सकेगा-सभी को उनके स्पर्श से अपवित्र होना पड़ेगा । और यदि वैसा नहीं है तो फिर दूसरी कोई भी ऐसी वजह नहीं हो सकती जिससे उनके द्वारा अच्छी तरह से धौत वस्त्र को भी अधौत करार दिया जाय । वास्तव में इस प्रकार का विधान स्त्री जाति आदि का स्पष्ट अपमान है,
और वह जननीति अथवा जैनशासन के भी विरुद्ध है । जैनशासन का स्त्रियों तथा शूद्रों के प्रति ऐसा घृणात्मक व्यवहार नहीं है, वह इस विषय में बहुत कुछ उदार है । हाँ, हिन्दू-धर्म की ऐसी शिक्षा जरूर पाई जाती है । उसके 'दक्ष' ऋषि स्त्रियों तथा शूद्रों के धोए हुये वस्त्र को सब कामों में गर्हित बतलाते हैं ! यथा
ईषद्धौत स्त्रिया धौतं शूद्रधौतं तथैव च । प्रतारितं यमदिशि गर्हितं सर्वकर्मसु ॥
-प्रान्हिक सूत्रावलि इस श्लोक का पूर्वार्ध और भट्टारकजी के श्लोक का पूर्वार्ध दोनों प्रायः एक हैं, सिर्फ 'तथैव' को भट्टारकजी ने 'चेटकैः' में बदला है .
और इस परिवर्तन के द्वारा उन नौकरों के धोए हुये वस्त्रों को भी तिरस्कृत किया है जो शूद्रों से भिन्न 'त्रैवर्णिक' ही हो सकते हैं!
इसीतरह हिन्दुओं के 'कर्मलोचन' ग्रंथ में स्त्री तथा घोबी के धोए हुये वस्त्र को 'अधौत' करार दिया गया है। जैसा कि · शब्दकल्पद्रुम' में उद्धृत उसके निम्न वाक्य से प्रकट है
ईषद्धात स्त्रिया धौतं यद्धीतं रजकेन च ।
अघोतं तद्विजानीयाद्दशा दक्षिणपश्चिमे ॥ ऐसे ही हिन्दू-वाक्यों पर से भट्टारकजी के उक्त वाक्य की सृष्टि हुई जान पड़ती है । परन्तु इस घृणा तथा वहम के व्यापार में भट्टारकजी
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