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" अकच्छः पुच्छकच्छो वाऽद्विकच्छः कटिवेष्टितः । कौपीनकधरश्चैव नग्नः पंचविधः स्मृतः ॥
- स्मृतिरत्नाकर । जान पड़ता है हिन्दू ग्रंथों के कुछ ऐसे श्लोकों पर से ही भट्टारकजी ने अपने श्लोकों की रचना की है और उनमें 'कषायवाससा नग्नः ' जैसी कुछ बातें अपने मतलब के लिये और शामिल करली हैं । अधौत का अद्भुत लक्षण ।
( ११ ) तीसरे अध्याय में ही भट्टारकजी, ' अधीत ' का लक्षण बतलाते हुए, लिखते हैं
इंपद्धीतं स्त्रिया धीतं शूद्रधौतं च चेटकैः । बाल के धतिमज्ञानैरधौतमिति भाष्यते ॥ ३२ ॥
अर्थात् - जो (वस्त्र) कम धुला हुआ हो, किसी स्त्री का धोया हुआ हो, शूद्रों का धोया हुआ, हो, नौकरों का धोया हुआ हो, या अज्ञानी बालकों का धोया हुआ हो उसे 'धौत' – बिना धुला हुआ - कहते हैं ।
इस लक्षण में कम धुले हुए और अज्ञानी बालकों के धोये हुए वस्त्रों को अधौत कहना तो कुछ समझ में ध्याता है, परन्तु स्त्रियों, शूद्रों और नौकरों के धोये हुए वस्त्रों को भी जो प्रधौत बतलाया गया है वह किस आधार पर अवलम्बित है, यह कुछ समझ में नहीं आता ! क्या ये लोग वस्त्र धोना नहीं जानते अथवा नहीं जान सकते ? जरूर जानते हैं और थोड़े से ही अभ्यास से बहुत अच्छा कपड़ा धो सकते हैं । शूद्रों में धोत्री ( रजक ) तो अपनी स्त्रीसहित वस्त्र धोने का ही कामं करता है और उसके धोये हुए वस्त्रों को सभी लोग पहनते हैं । इसके सिवाय, लाखें। स्त्रियाँ तथा नौकर वख धोते हैं और उनके धोए हुए वस्त्र लोक में अौत नहीं समझे जाते । फिर नहीं गालूम भट्टारकजी किस न्याय अथवा सिद्धान्त से ऐसे लोगों के द्वारा धुले हुए अच्छे से अच्छ वस्त्र को भी अधौत कहने का साहस करते हैं !! क्या आप त्रैवर्णिक
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