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[११८] है । मालूग नहीं भट्टारकी ने नग्न की यह परिभाषा कहाँ से की है ! प्राचीन जैन शास्त्रों में तो खोजने पर भी इसका कहीं कुछ पता चलता नहीं !! आम तौर पर जैनियों में 'जातरूपधरो नग्नः' की प्रसिद्धि है । भट्टाकलंकदेव ने भी राजवार्तिक में 'जातरूपधारणं नारन्यं' ऐसा लिखा है । और यह अवस्था सर्व प्रकार के वस्त्रों से रहित होती है । इसीसे अमरकोश में भी 'नग्नोऽवासा दिगम्बरे' वाक्य के द्वारा वस्त्ररहित, दिगम्बर और नग्न तीनों को एकार्थवाचक बतलाया है। इससे भट्टारकजी की उक्त दशभेदात्मक परिभाषा बड़ी ही विचित्र जान पड़ती है। उनके दस भेदों में से अर्धवस्त्रधारी और कौपीनवान्
आदि को तो किसी तरह पर 'एकदेशनग्न' कहा भी जासकता है परन्तु जो लोग बहुत से मैले कुचैले या अपवित्र वस्त्र पहने हुए हों अथवा इससे भी बढ़कर सर से पैर तक पवित्र भगवे वस्त्र धारण किये हुए हों उन्हें किस तरह पर 'नग्न' कहा जाय, यह कुछ समझ में नहीं माता !! ज़रूर, इसमें कुछ रहस्य है । भट्टारक लोग वस्त्र पहनते हैं, बहुधा भगवे ( कषाय ) वस्त्र धारण करते हैं और अपने को 'दिगम्बर मुनि' कहते हैं। संभव है, उन्हें नग्न दिगम्बर मुनियों की कोटि में लाने के लिये ही यह नग्न की परिभाषा गढ़ी गई हो । अन्यथा, भगवे वस्त्र वालों को तो हिन्दू ग्रन्थों में भी नग्न लिखा हुआ नहीं मिलता। हिन्दुओं के यहाँ पंच प्रकार के नग्न बतलाये गये हैं और वह पंच प्रकार की संख्या भी विभिन्न रूप से पाई जाती है । यथाः
"द्विकच्छः कच्छशेषश्च मुक्रकच्छस्तथैव च । एकवासा अवासाश्च नग्नः पंचविधः स्मृतः ॥
-श्रान्हिक तत्व । " नग्नो मलिनवस्त्रः स्यान्नग्नो नीलपटस्तथा।
विकक्ष्योऽनुत्तरीयश्च नग्नश्चावस्त्र एवच ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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