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[११६] वर्ती आदिक सब नरक गये ; क्योंकि ये दोनों कन्याएँ युवावस्था में घर पर अविवाहिता रहीं और तब वे रजस्वला भी हुई, यह स्वाभाविक है। परंतु ऐसा कोई भी जैनी नहीं कह सकता। सब जानते हैं कि भगवान ऋषभदेव और उनके सब पुत्र निर्वाण को प्राप्त हुए और उक्त दोनों माताएँ भी ऊँची देवगति को प्राप्त हुई । इसी तरह सुलोचना आदि हजारों ऐसी कन्याओं के उदाहरण भी सामने रक्खे जा सकते हैं जिनके विवाह युवावस्था में हुए जब कि वे रजोधर्म से युक्त होचुकी थीं
और उनके कारण उनके माता पिता तथा भाइयों को कहीं भी नरक जाना नहीं पड़ा । अतः भट्टारकजी का यह सब कथन जैन धर्म के अत्यंत विरुद्ध है और हिंदूधर्म की उसी शिक्षा से सम्बंध रखता है जो एक अविवाहिता कन्या को पिता के घर पर रजस्वला हो जाने पर शूद्रा ठहराता है । इस प्रकार के विधिवाक्यों तथा उपदेशों ने ही समाज में बाल-विवाह का प्रचार किया है और उसके द्वारा समाज तथा धर्म को भारी, निःसीम, अनिवर्चनीय तथा कल्पनातीत हानि पहुँचाई है । ऐसे जहरीले उपदेश जबतक समाज में कायम रहेंगे,
और उनपर अमल होता रहेगा तबतक समाज का कभी उत्थान नहीं हो सकता, वह पनप नहीं सकता और न उसमें धार्मिक जीवन ही आ सकता है। ऐसी छोटी उम्र में कन्या का विवाह महज़ उसी के लिये घातक नहीं है बल्कि देश, धर्म और समाज तीनों के लिये घातक है । वास्तव में माता पिता का यह कोई खास फ़र्ज़ अथवा कर्तव्य नहीं है कि वे अपनी संतान का विवाह करें ही करें और वह भी छोटी उम्र में । उनका मुख्य कर्तव्य तथा धर्म है संतान को सुशिक्षित करना, अनेक प्रकार की उत्तम विद्याएँ तथा कलाएँ सिखलाना, खोटे संस्कारों से उसे अलग रखना, उसकी शारीरिक तथा मानसिक शक्तियों को विकसित करके उनमें दृढता लाना, उसे जीवनयुद्ध में स्थिर रहने तथा विजयी
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