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[११४] पितुऍहे तु या कन्या रजः पश्येदसंस्कृता ।
सा कन्या वृषली शेया तत्पतिवृषलीपतिः ॥ १६६ ॥ मालूम नहीं इसमें कन्या का क्या अपराध समझा गया और उसके स्त्री-धर्म की स्वाभाविक प्रवृत्ति में शूद्र की वृत्ति का कौनसा संयोग हो गया जिसकी वजह से वह बेचारी 'शूद्रा' करार दी गई !! इस प्रकार की व्यवस्था से जैनधर्म का कोई सम्बन्ध नहीं । यह भी उसके विरुद्ध हिन्दूधर्म की ही शिक्षा है और उक्त श्लोक भी हिन्दूधर्म की चीज़ हैहिन्दुओं की विष्णुसंहिता * के २४ वें अध्याय में वह नं० ४१ पर दर्ज है, सिर्फ उसका चौथा चरण यहाँ बदला हुआ है और 'पितृवेश्मनि' की जगह 'पितुहे तु' बनाया गया अथवा पाठान्तर जान पड़ता है। प्रायः इसी आशय के दो पद्य "उद्वाहतत्व' में भी पाये जाते हैं, जिन्हें शब्दकल्पद्रुमकोश में निम्नप्रकार से उद्धृत किया है
" पितुर्गेहे च या कन्या रजः पश्यत्यसंस्कृता।
भ्रूणहत्या पितुस्तस्याः सा कन्या वृषली स्मृता ॥" " यस्तु तां वरयेत्कन्यां ब्राह्मणो शानदुबलः।
अश्राद्धेयमक्तेयं तं विद्याद् वृषलीपतिम् ॥" इसके सिवाय, ब्रह्मवैवर्तपुराण में भी 'यदि शूद्रां व्रजद्विमो वृषलीपतिरेव सः' वाक्य के द्वारा शूद्रागामी ब्राह्मण को वृषलीपति ठहराया है । इस तरह पर यह सब हिन्दू धर्म की शिक्षा है, जिसको भट्टारकजी ने जैन धर्म के विरुद्ध अपनाया है। जैन धर्म के अनुसार किसी व्यक्ति में इस तरह पर शूद्रत्व का योग नहीं किया जा सकता । यदि ऐसे भी शूद्रत्व का योग होने लगे तब तो शूद्र स्त्रियों की ही नहीं किन्तु पुरुषों की भी संख्या बहुत बढ़ जाय और लाखों कुटुम्बों को शूद्र-सन्तति में परिगणित करना पड़े !! *देखो बंगवासी प्रेस कलकत्ता का सं० १६६४ का छपा हुआसंस्करण । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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