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और कैसे यह कहा जा सकता है कि जो संध्यासमय संध्योपालन नहीं करता वह जीवित शूद्र होता है ? मालूम होता है यह सब कुछ लिखते हुए भट्टारकजी जैनत्व को अथवा जैन धर्म के स्वरूप को बिलकुल ही भूल गये हैं और उन्होंने बहुधा आँख मींच कर हिन्दू धर्म का अनुसरण किया है | हिन्दुओं के यहाँ शूद्रों को संध्योपासन का अधिकार नहीं— वे बेचारे वेदमन्त्रों का उच्चारण तक नहीं कर सकते - इसलिये उनके यहाँ ऐसे वाक्य बन सकते हैं । यह वाक्य भी उन्हीं के वाक्यों पर से बनाया गया अथवा उन्हीं के ग्रंथों पर से उठा कर रक्खा गया है । इस वाक्य से मिलता जुलता 'मरीचि' ऋषि का एक वाक्य इस प्रकार है: संध्या येन न विज्ञाता संध्या येनानुपासिता । जीवमाना भवेच्छूद्रः मृतः श्वा चाभिजायते ॥ - श्रान्हिक सूत्रावलि । इस पद्य का उत्तरार्ध और भट्टारकजी के पद्य का उत्तरार्ध दोनों एक है और यही उत्तरार्ध जैनदृष्टि से आपत्ति के योग्य है । इसमें मर कर कुत्ता होने का जो विधान है वह भी जैन सिद्धान्तों के विरुद्ध है । संध्या के इस प्रकरण में और भी कितने ही पद्य ऐसे हैं जो हिन्दू धर्म के ग्रंथों से ज्यों के त्यों उठा कर अथवा कुछ बदल कर रक्खे गये हैं; जैसे उत्तमा तारकोपेता ', ' अन्होरात्रेश्च यः सन्धिः ' और 'राष्ट्रभंगे नृपतोभे' आदि पब । और इस तरह पर बहुधा हिन्दू धर्म की भी सीधी नकल की गई है ।
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( ८ ) ग्यारहवें अध्याय में शूद्रत्व का एक और भी विचित्र योग किया गया है और वह यह कि ' जो कन्या विवाह संस्कार से पहले पिता के घर पर ही रजस्वला हो जाय' उसे ' शूद्रा ( वृषली ) ' बतलाया गया है और उससे जो विवाह करे उसे शूद्रा पति । वृषलीपति ) की संज्ञा दी गई है । यथा
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