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[१११] कहाँ से शूद्रत्व उसके भीतर घुस जाता है ? क्या शुद्ध का कर्म मान न करना है ? अथवा शूद्र स्नान नहीं किया करते ? शूद्रों को बराबर स्नान करते हुए देखा जाता है, और उनका कर्म स्नान न करना कहीं भी नहीं लिखा। स्वयं भट्टारकजी ने सातवें अध्याय में शुद्रों का कर्म त्रिवर्णों की सेवा तथा शिल्प कर्म बतलाया है और यहाँ तक लिखा है कि ये चारों वर्ण अपने अपने नियत कर्म के विशेष से कहे गये हैं, जैनधर्म को पालन करने में इन चारों वर्गों के मनुष्य परम समर्थ हैं और उसे पालन करते हुए वे सब परस्पर में भाई भाई के समान हैं । यथा
विप्रक्षत्रियवैश्यानां शूद्राम्तु सेवका मता ॥ १४० ॥ तेषु नाना विधं शिल्पं कर्म प्रोक्तं विशेषतः ।। १४१ ।। विप्रक्षत्रियविशुद्राः प्रोक्ताः क्रियाविशेषतः।
जैनधर्म पराः शक्कास्ते सर्व बान्धवोपमाः ॥ १४२ ॥ फिर आपका यह लिखना कि सात दिन तक स्लान न करने से कोई शुद्ध हो जाता है, कितना असंगत है और शूद्रों के प्रति कितना तिरस्कार का घोतक तथा अन्यायमय है, इसे पाठक स्वयं समझ सकते हैं। हाँ, यदि कोई द्विज भर्से तक शिल्यादि कर्म करता रहे तो उसे भट्टारकजी अपने लक्षण के अनुसार शुद्र कह सकते थे परन्तु स्नान न करना कोई शूद्र कर्म नहीं है-उसके लिये रोगादिक के अनेक कारण सभी के लिये हो सकते हैं और इसलिये महज उसकी वजह से किसी में शूदत्व का योग नहीं किया जा सकता। मालूम नहीं सात दिन के बाद यदि वह गृहस्थ फिर नहाना शुरू कर देवे तो भट्टारकजी की दृष्टि में उसका वह शूद्रत्व दूर होता है या कि नहीं ! पंथ में इसकी बाबत कुछ लिखा नहीं !!
(७) तीसरे अध्याय में भट्टारकजी उस मनुष्य को जीवन भर के लिये शूद्र ठहराते हैं और मरने पर कुत्ते की योनि में जाना बतलाते
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