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[११२] हैं जो संध्याकाल प्राप्त होने पर भी संध्या महीं करता है !! यथा:
सन्ध्याकाले तु सम्प्राप्ते सन्ध्यां नैवमुपासते।
जीवमानो भवेच्छूद्रः मृतः श्वा चैव जायते ॥ १४१ ॥ यहाँ भी पूर्ववत् शूद्रत्व का अद्भुत योग किया गया है और इस से यह भी ध्वनित होता है कि शूद्र को संध्योपासन का अधिकारी नहीं समझा गया । परन्तु यह हिन्दूधर्म की शिक्षा है जैनधर्म की शिक्षा नहीं । जैनधर्म के अनुसार शूद्र संध्योपासन के अधिकार से वंचित नहीं रक्खा जा सकता । जैनधर्म में उसे नित्य पूजन का अधिकार दिया गया है * वह त्रिसंध्या-सेवा का अधिकार है और ऊँचे दर्जे का श्रावक हो सकता है । इसीसे सोमदेवसूरि तथा पं० आशाधरजी ने भी आचारादि की शुद्धि को प्राप्त हुए शूद्र को ब्राह्मणादिक की तरह से धर्मक्रियाओं के करने का अधिकारी बतलाया है; जैसाकि उनके निम्न वाक्यों से प्रकट है:-- - "प्राचाराऽनवद्यत्वं शुचिरुपस्कारः शरीरशुद्धिश्च करोति शूद्रा. नपि वेषद्विजातिपरिकर्मसु योग्यान् ।" -नीतिवाक्यामृत ।
"अथ शूद्रस्याप्याहारादिशुद्धिमतो ब्राह्मणादिवद्धर्मक्रियाकारिस्थ बथोचितमनुमन्यमानः प्राह
शुद्रोऽप्युपस्कराचारवपुःशुध्यास्तु तारशः । जात्या होनोऽपि कालाविलब्धौ ह्यात्मास्ति धर्मभाक् ॥"
-सागारधर्मामृत सटीक । इसके सिवाय, भट्टारकजी ऊपर उद्धृत किये हुए पद्य नं. १४२ में जब स्वयं यह बतला चुके हैं कि शूद्र भी जैन धर्म का पालन करने में 'परम समर्थ ' हैं तो फिर वे संध्योपासन कैसे नहीं कर सकते ?
* शूद्रों के इस सब अधिकार को अच्छी तरह से जानने के लिये लेखक की लिखी हुई 'जिनपूजाऽधिकार-मीमांसा' नामक पुस्तक को देखना चाहिये।
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