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[११०] नित्यं नैमित्तिकं स्नानं क्रिया मलकर्षणम् । तीर्थाभावे तु कर्तव्यमुष्णोदकपरोदकैः ॥ यमः॥ कुर्यानैमित्तिकं स्नानं शीताद्भिः काम्यमेव च । नित्यं यादृच्छिकं चैव यथारुचि समाचरेत् ॥ चंद्रिका ॥
-इति स्मृतिरत्नाकरे। भट्टारकजी ने अपने उक्त पद्य से पहले 'पापः स्वभावतःशुद्धाः' नाम का जो पध गर्म जल से स्नान की प्रशंसा में दिया है वह भी हिन्दू ग्रंथों से उठाकर रक्खा है । स्मृतिरत्नाकर में, वहसाधारण से पाठभेद* के साथ, प्रायः ज्यों का त्यों पाया जाता है और उसे आतुरविषयक-रोगी तथा अशक्तों के स्नान सम्बंधी---सूचित किया है, जिसे भट्टारकजी ने शायद नहीं समझा और वैसे ही अगले पद्य में समूचे गृहस्नान के लिये सदा को ठंडे जल का निषेध कर दिया !!
शूद्रत्व का अद्भुत योग । (६) दूसरे अध्याय में, स्नान का विधान करते हुए, भट्टारकजी लिखते हैं कि जो गृहस्थ सात दिन तक जल से स्नान नहीं करता वह शूद्रत्व को प्राप्त हो जाता है-शूद्र बन जाता है । यथा:
सप्ताहान्यम्भसाऽस्नायी गृही शूद्रत्वमाप्नुयात् ॥ १७ ॥ शूद्रत्व के इस अद्भुत योग अथवा नूतन विधान को देखकर बड़ा आश्चर्य होता है और समझ में नहीं आता कि एक ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य महज सात दिन के स्नान न करने से कैसे शूद्र बन जाता है !
* वह पाठभेद 'शुद्धाः ' की जगह मेध्याः ' 'वन्हितापिताः' की जगह 'वन्हिसंयुताः' और 'अतः' की जगह तेन' इतना ही है जो कुछ अर्थ-भेद नहीं रखता।
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