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[८ ] घध्वा सहैव कुर्वीत निवासं श्वशुरालये।
चतुर्थदिनमत्रैव केचिदेवं वदन्ति हि ॥ १७३ ॥ " विवाहानन्तरं गच्छेत्सभार्यः स्वस्य मन्दिरम् ।
यदि ग्रामान्तरे तत्स्यात्तत्र यानेन गम्यते ।। १७८ ।। ४ स्नान सतैलं तिलमिश्रकर्म, प्रेतानुयानं करकप्रदागम् ।
अपूर्वतीर्थामरदर्शनं च विवर्जयेन्मगलतोऽब्दमेकम् ।।१८।। इससे स्पष्ट है कि भट्टारकजी का यह सब कथन आदिपुराण के बिलकुल विरुद्ध है और उनकी पूरी निरंकुशता को सूचित करता है । साथ ही इस सत्य को और भी उजाल देता है कि श्री जिनसेनाचार्य के वचनानुसार कथन करने की आपकी सब प्रतिज्ञाएँ ढौंग मात्र हैं । आपने उनके सहारे अथवा छल से लोगों को ठगना चाहा है और इस तरह पर धोखे से उन हिन्दू संस्कारों-क्रियाकाण्डों-तथा आचार विचारों को समाज में फैलाना चाहा है जिनसे आप स्वयं संस्कृत थे अथवा जिनको आप पसंद करते थे और जो जैन आचार-विचारों आदि
x इस पद्य में, विवाह के बाद अपूर्व तीर्थ तथा देवदर्शन के निषेध के साथ एक साल तक तेल मलकर स्नान करने, तिलों के उपयोग वाला कोई कर्म करने, मृतक के पीछे जाने और करक (कमएडलु आदि) के दान करने का भीनिषेध किया है।मालूम नहीं इन सबका क्या हेतु है ? तेल मलकर नहा लेने आदि से कौनसा पाप चढ़ता है ? शरीर में कौनसी विकृति प्राजाती है ? तीर्थयात्रा अथवा देवदर्शन से कौनसी हानि पहुँचती हैं ? श्रात्मा को उससे क्या लाभ होता है ? और अपने किसी निकट सम्बन्धी की मृत्यु हो जाने पर उसके शव के पीछे न जाना भी कौनसा शिष्ठाचार है ? जैनधर्म की शिक्षाओं से इन सब बातों का कोई सम्बन्ध मालूम नहीं होता। ये सब प्रायः हिन्दू धर्म की शिक्षाएँ जान पड़ती हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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