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[८७ ] के बहुत कुछ विरुद्ध हैं । इससे अधिक धूर्तता, उत्सूत्रवादिता और ठगविद्या दूसरी और क्या हो सकती है ? इतने पर भी जो लोग, साम्प्रदायिक मोहवश, भट्टारकजी को ऊँचे चरित्र का व्यक्ति समझते हैं, संयम के कुछ उपदेशों का इधर उधर से संग्रह कर देने मात्र से उन्हें ' अद्वितीय संयमी' प्रतिपादन करते हैं, उनके इस त्रिवर्णाचार की दीवार को आदिपुराण के ऊपर-उसके आधारपरखड़ी हुई बतलाते हैं और इसमें कोई भी बात ऐसी नहीं जो किसी पार्ष ग्रंथ अथवा जैनागम के विरुद्ध हो' ऐसा कहने तक का दुःसाहस करते हैं, उन लोगों की स्थिति, निःसंदेह, बड़ी ही शोचनीय तथा करुणाजनक है । मालूम होता है वे भाले हैं या दुराग्रही हैं, उनका अध्ययन स्वल्प तथा अनुभव अला है, पर-साहित्य को उन्होंने नहीं देखा और न तुलनात्मक पद्धति से कभी इस ग्रंथ का अध्ययन ही किया है । अस्तु ।
इस ग्रंथ में आदिपुराण के विरुद्ध और भी कितनी ही बातें हैं जिन्हें लेख बढ़ जाने के भय से यहीं छोड़ा जाता है ।
(२) आदिपुराण के विरुद्ध अथवा आदिपुराण में विरोध रखने वाले कथनों का दिग्दर्शन कराने के बाद, अब मैं एक दूसरे ग्रंथ को
और नेता हूँ जिसके सम्बन्ध में भी भट्टारकजी का प्रतिज्ञाविरोध पाया जाता है और वह ग्रंथ है ' ज्ञानार्णव', जो श्री शुभचन्द्राचार्य का बनाया हुआ है । इसी ग्रंथ के अनुसार ध्यान का कथन करने की एक प्रतिज्ञा भट्टारकजी ने, ग्रंथ के पहले ही 'सामायिक' अध्याय में, निम्न प्रकार से दी है:
ध्यानं तावदरं वदामि विदुषां ज्ञानार्णवे यन्मतमात रौद्रसघHशुक्ल चरम दुःखादिसौल्यप्रदम् । पिण्डस्थं च पदस्थरूपरहितं रूपस्थनामा परं। तेगं भिन्न चतुश्च नुर्विषयजा भेदाः परे सन्ति वै ॥२८॥
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