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[८५] क्रान्त्वा स्वस्योचितां भूमि तीर्थभूमीहित्य च । स्वगृहं प्रविशद्भूत्या परया तद्वद्वधूवरम् ।। १३३ ॥ विमुनकङ्कणं पश्चात्स्वगृहे शयनीयकम् । अधिशय्य तथाकालं भोगाङ्गैरुपलालितम् ॥ १३४ ।।
-३८ वाँ पर्व । परंतु भट्टारकजी ने उन दोनों के ब्रह्मचर्य की अवधि तीन रात की रक्खी है, गृहप्रवेश से पहले तीर्थयात्रा को जाने की कोई व्यवस्था नहीं की, बल्कि सीधा अपने घर को जाने की बात कही है और यहाँ तक बन्ध लगाया है कि एक वर्ष तक किसी भी अपूर्व तीर्थ अथवा देवता के दर्शन को न जाना चाहिये; कङ्कण को प्रस्थान से पहले श्वशुरगृह पर ही खोल देना लिखा है और वहीं पर चौथे दिन दोनों के शयन करने अथवा एक शय्यासन होने की भी व्यवस्था की है । जैसा कि आपके निम्न वाक्यों से प्रकट है"तदनन्तरं कङ्कणमोचनं कृत्वा महाशोभया ग्राम प्रदक्षिणीकृत्य पयःपाननिधुवनादिकं सुखेन कुर्यात् । स्वग्रामं गच्छेत् । " विवाहे दम्पती स्यातां त्रिरात्रं ब्रह्मचारिणौ ।
अलंकृता वधूश्चैव सहशय्यासनाशनौ ।। १७२ ॥
*इस वाक्य में ग्राम की प्रदक्षिणा के अनन्तर सुखपूर्वक दुग्धपान तथा स्त्रीसंभोगादिक (निधुवनादिक) करने का साफ़ विधान है
और उसके बाद स्वग्राम को जाना लिखा है । परंतु सोनीजी ने अनुवाद मेंइसके विरुद्ध पहले अपने ग्राम को जाना और फिर वहाँ संभो. गादिक करना बतलाया है, जो भगले पद्यों के कथन से भी विरुद्ध पड़ता है। कहीं प्रादिपुराण के साथ संगति मिलाने के लिये तो ऐसा नहीं किया गया ! तब तो कङ्कण भी वहीं स्वग्राम को जाकर खुलवाना था।
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