________________
[१४] यही उक्त पद्यों का परिचय है । इस परिचय पर से सहृदय पाठक सहज ही में इस बातका अनुभव कर सकते हैं कि ये सब पद्य यहाँ पर पदस्थ ध्यान के वर्णन में, पूर्वापर सम्बंध अथवा कथनक्रम को देखते हुए, कितने असंबद्ध तथा बेढंगे मालूम होते हैं और इनके यहाँ दिये जाने का उद्देश्य तथा श्राशय कितना अस्पष्ट है । एकसौ आठ भेदों की यह गणना भी कुछ विलक्षण जान पड़ती है-भूत, भविष्यत् और वर्तमान कालके भेद से भी हिंसादिक में कोई प्रकार-भेद होता है यह बीत इस ग्रंथसे ही पहले पहल जानने को मिली । परंतु यह बात चाहे ठीक हा या न हो किन्तु ज्ञानार्णव के विरुद्ध जरूर है; क्योंकि ज्ञानाणव में हिंसाके भूत, भविष्यत और वर्तमान ऐसे कोई भेद न करके उनकी जगह पर सरंभ, समारंभ, और आरंभ, नाम के उन भेदों का ही उल्लेख किया है जो दूसरे तत्वार्थ ग्रंथों में पाये जाते हैं; जैसा कि उसके निम्न वाक्य से प्रकट है
संरम्भादित्रिकं योगैः कषायैाहतं क्रमात् ।
शतमष्टाधिकं ज्ञेयं हिंसा भेदैस्तु पिण्डितम् ।।८-१०॥ . यहाँ पर मैं अपने पाठकों को इतना और भी बतला देना चाहता हूँ कि सोनीजी ने अपनी अनुवाद पुस्तक में पद्य नं. ८८ और ८९ के मध्य में 'उक्तं च तत्वार्थे' वाक्य के साथ संरंभसमारंभारंभयोग' नाम के तत्वार्थ सूत्र का भी अनुवादसहित इस ढंग से उल्लेख किया है जिससे वह भट्टारकजी के द्वारा ही उद्धृत जान पड़ता है । परंतु मराठी अनुवाद वाली प्रति में वैसा नहीं है । हो सकता है कि यह सोनीजी की ही अपनी कर्तन हो । परंतु यदि ऐसा नहीं है किन्तु भट्टारकजी ने ही इस सूत्र को अपने पूर्व कथन के समर्थन में उद्धृत किया है और वह ग्रंथ की कुछ प्राचीन प्रतियों में इसी प्रकार से उद्धृत पाया जाता है तो कहना होगा कि भट्टारकजी ने इसे देकर अपनी रचना.
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com