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[ ६७ ] की हालत में थे, उन्मत्त ये अथवा उन्हें इतनी भी सूझ बूझ महीं थी जो अपने सामने स्थित एक ही पत्र पर के पूर्वापर विरोधों को भी समझ सकें ! और क्या इसी बिरते अथवा बूते पर आप ग्रंथरचना करने बैठ गये ? संभव है भट्टारकजी को घर की ऐसी कुछ ज्यादा प्रकल न हो और उन्होंने किराये के साधारण आदमियों से रचना का काम लिया हो और उसी की वजह से यह सब गड़बड़ी फैली हो । परन्तु कुछ भी हो, इसमें संदेह नहीं कि इस ग्रंथ का निर्माण किसी अच्छे हाथ से नहीं हुआ और इसीलिये वह पद पद पर अनेक प्रकार के विरोधों से भरा हुआ है तथा बहुत ही बेढंगेपन को लिये हुए है।
यहाँ पर पाठकों को यह जानकर बड़ा ही आश्चर्य तथा कौतूहल होगा कि भट्टारकजी ने 'सामायिक' के इस अध्याय में विद्वेषण तथा मारण मंत्रों तक के जप का विधान किया है * और ऐसे दुष्ट कार्यार्थी मंत्रों के जप का स्थान श्मशान भूमि+ बतलाया है !! खेद है जिस सामायिक की बाबत आपने स्वयं यह प्रतिपादन किया है कि 'उसमें सब जीवों पर समता भाव रक्खा जाता है, संयम में शुभ भावना रहती है तथा आर्त-रौद्र नाम के अशुभ घ्यानों का त्याग होता है' और जिसके विषय में आप यहाँ तक शिक्षा दे पाए हैं कि उसके अभ्यासी को जीवन-मरण, लाभ-अलाभ, योग-वियोग, बन्धु-शत्रु तथा मुख-दुख में सदा समता भाव रखना चाहिये--रागद्वेष नहीं करना चाहिये' उसी सामायिक के प्रकरण में श्राप विद्वेष फैलाने तथा किसी को मारने तक के मंत्रों का विधान करते हैं !! यह कितना भारी विरोध तथा *यथा:-ॐ हां, महद्योइंफट्, ॐ हीं सिद्धेभ्यो हूं फट्,
इत्यादि-विद्वेषमंत्रः।
ॐहां मईयो घेघे इति (इत्यादि !) मारणमंत्रः। +यथाः श्मशाने दुष्टकार्यार्थ शान्त्याय जिनालये ॥११॥
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