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[१०२] है। परंतु उसने पाप का कौनसा विशेष कार्य किया ! कैसे सर्व जीवों के प्रति उसका निर्दयत्व प्रमाणित हुआ ? और शरीर में कौनसा विकार उपस्थित हो जाने से वह जल्दी मर जायगा ! इन सब बातों का उक्त पध से कुछ भी बोध नहीं होता । भागे पीछे के पच भी इस विषय में मौन हैं और कुछ उत्तर नहीं देते । लोकव्यवहार भी ऐसा नहीं पाया जाता और न प्रत्यक्ष में ही किसी को उस तरह से जल्दी मरता हुआ देखा जाता है । मालूम नहीं भट्टारकजी ने कहाँ से ये निर्मूल आज्ञाएँ जारी की हैं, जिनका जैननीति अथवा जैनागम से कोई समर्थन नहीं होता । प्राचीन जैनशास्त्रों में ऐसी कोई भी बात नहीं देखी जाती जिससे बेचारे प्रातःकाल उठ कर दन्तधावन करने वाले एक साधारण गृहस्थ को पापी ही नहीं किन्तु सर्व जीवों के प्रति निर्दयी तक ठहराया जाय ।
और न शरीरशास्त्र का ही ऐसा कोई विधान जान पड़ता है जिससे उस वक्त का दन्तधावन करना मरण का साधन हो सके । वाग्भट जैसे शरीरशास्त्र के प्राचार्यों ने ब्राह्म मुहूर्त में उठ कर शौच के अनंतर प्रातःकाल ही दन्तधावन का साफ तौर से विधान किया है । वह स्वास्थ्य के लिये कोई हानिकर नहीं हो सकता । और इसलिये यह सब कथन भट्टारकजी की प्रायः अपनी कल्पना जान पड़ता है । जैनधर्म की शिक्षा से इसका कोई खास सम्बंध नहीं है । खेद है कि भट्टारकजी को इतनी भी खबर नहीं पड़ी कि क्या प्रातःसंध्या बिना दन्तधावन के ही हो जाती है * जिसको आप स्वयं ही 'सूर्योदयाच प्रागेव प्रातःसंध्या समापयेत् ( ३-१३५)' वाक्य के द्वारा सूर्योदय से पहले ही समाप्त कर देने को लिखते हैं !! यदि खबर पड़ती तो आप व्यर्थ ही ऐसे
*नहीं होती। भट्टारकजी ने खुद संध्या समय के मान को ज़रूरी बतलाते हुए उसे दन्तधावनपूर्वक करना लिखा है । यथा
सन्ध्याकाले...कुर्यात्स्नानत्रयं जिह्वादन्तधावनपूर्वकम् ॥१०७. १११॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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