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[ 8 ] साप बिनका प्रायः कोई मेल नहीं । इससे पाठकों पर ग्रंथ की प्रसलियत और भी अच्छी तरह से खुल जायगी और उन्हें ग्रंथकर्ता की मनोदशा का भी कितना ही विशेष अनुभव हो जायगा अथवा यों कहिये कि मट्टारकजी की श्रद्धा मादि का उन्हें बहुतसा पता चल जायगाः
देव, पितर और ऋषियों का घेरा। (१) शौच' नाम के दूसरे अध्याय में, कुरला करने का विधान करते हुए, भट्टारकजी ने लिखा है* पुरतः सर्वदेवाय दक्षिणे व्यन्तराः [पितरः] स्थिताः [तथा]।
ऋषयः पृष्ठतः सर्वे चामे गण्डूषमुत्सृजेत् [ माचरेत् ] ॥ ६ ॥
* इस पथ के अनुवाद में सोनाजी ने बड़ा तमाशा किया है। मापने 'पुरत:' का अर्थ 'पूर्व की तरफ', 'पृष्ठत': का अर्थ 'पश्चिम की ओर' और 'वामे' पद के साथ में मौजूद होते हुए भी 'दचिणे' का अर्थ दाहिनी ओर न करके, 'दक्षिण दिशा की तरफ़' गलत किया है और इस सम्त प्रवती के कारण ही पूर्व, दक्षिण तथा पश्चिम दिशामों में क्रमशः सर्व देवों, व्यन्तरों तथा सर्व ऋषियों का निवास पतला दिया है ! परन्तु 'वामे' का अर्थ भाप 'उत्तर दिशा' न कर सके और इसलिये भापको "इन तीन दिशाओं में कुरला न फेंके" के साथ साथ यह भी लिखना पड़ा-"किन्तु अपनी बाई भोर फेंके"। परन्तु पाई मोर यदि पूर्व दिशा हो, दक्षिण दिशा हो, अथवा पश्चिम दिशा हो तब क्या बने और कैसे बॉई मोर कुरला करने का नियम कायम रोसकी आपको कुछ भी खबर नहीं पड़ी! और न यही खयाल माया कि जैनागम में कहाँ पर ये दिशाएँ इन देवादिकों के लिये मसासूस अथवा निर्धारित की गई है !! वैसे ही बिना सांचे
समझे जो जी में माया लिम मारा! यह भी नहीं सोचा कि यदि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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