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[८८] इस प्रतिज्ञावाक्य - द्वारा यह विश्वास दिलाया गया है कि इस अध्याय में ध्यान का-उसके आर्त, रौद्र, धर्म्य, शुक्ल भेदों का, उपभेदों का और पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ तथा रूपातीत नाम के दूसरे भेदों का-जो कुछ कथन किया गया है वह सब ' ज्ञानार्णव ' के मतानुसार किया गया है, ज्ञानार्णव से भिन्न अथवा विरुद्ध इसमें कुछ भी नहीं है । परन्तु जाँचने से ऐसा मालूम नहीं होता-ग्रंथ में कितनी ही बाते ऐसी देखने में आती हैं जो ज्ञानार्णव-सम्मत नहीं हैं अथवा ज्ञानार्णव से नहीं ली गई । उदाहरण के तौर पर यहाँ उनके कुछ नमूने नीचे दिये जाते हैं :
(अ)'अपायविचय ' धर्मध्यान का लक्षण बतलाते हुए भट्टःरकजी लिखते हैं
* येन केन प्रकारेण जैनो धर्मो प्रवर्धते ।
तदेव क्रियते पुम्भिरगायविचयं मतम् ॥ ३५ ॥ अर्थात्-'जिस तिस प्रकार से जैन धर्म बढ़े वही करना अपायविचय माना गया है । परन्तु ज्ञानार्णव में तो ऐसा कहीं कुछ माना नहीं गया । उसमें तो साफ़ लिखा है कि 'जिस ध्यान में कर्मों के अपाय ( नाश) का उपाय सहित चिन्तवन किया जाता है उसे अपा. यविचय कहते हैं । यथाः
* इस पद्य पर से 'अपायविचय' का जब कुछ ठीक लक्षण निकलता हुआ नहीं देखा तब सोनीजी ने वैसे ही खींचखाँच कर भावार्थ श्रादि के द्वारा उसे अपनी तरफ़ से समझाने की कुछ चेष्टा की है, जिसका अनुभव विज्ञ पाठकों को अनुवाद पर से सहज ही में हो जाता है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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