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[६ ] यहाँ पर मैं इतना और भी बतला देना चाहता हूँ कि भट्टारकजी ने रूपस्थ ध्यान के अनन्तर 'रूपातीत' ध्यान का लक्षण एक पध में देने के बाद 'प्रातश्चोत्थाय' से लेकर 'षडावश्यकसत्कर्म' तक १७ पद्य दिये हैं, जो ग्रंथ में 'प्रातःकाल सम्बंधी क्रियाएँ' और.. 'सामायिक' शीर्षकों के साथ नं. ५० से ६६ तक पाये जाते हैं। इन पदों में प्रातःकाल सम्बन्धी विचारों का कुछ उल्लेख करके सामायिक . करने की प्रेरणा की गई है और सामायिक का स्वरूप आदि भी बतलाया गया है । सामायिक के लक्षण का प्रसिद्ध श्लोक 'समता सर्वभूतेषु' इनमें शामिल है, 'योग्य कालासन' तथा 'जीविते मरणे' नाम के दो पद्य अनगारधर्मामृत के भी उद्धृत हैं और 'पापिष्ठेन दुरात्मना' नाम का एक प्रसिद्ध पद्य प्रतिक्रमण पाठ का भी यहाँ शामिल किया गया है। और इन सब पद्यों के बाद 'पदस्थ ध्यान' का कुछ विशेष कथन प्रारम्भ किया गया है । ग्रंथ की इस स्थिीत में उक्त १७ पद्य यहाँ पर बहुत कुछ असम्बद्ध तथा बेढंगे मालूम होते हैं—पूर्वापर पद्यों अथवा कथनों के साथ उनका सम्बंध ठीक नहीं बैठता । इनमें से कितने ही पद्यों को इस सामायिक प्रकरण के शुरू में 'ध्यानं तावदहं वदामि से भी पहले -देना चाहिये था। परंतु भट्टारकजी को इसकी कुछ भी सूझ नहीं पड़ी, और इसलिये उनकी रचना क्रमभंगादि दोषों से दूषित हो गई, जो पढ़ते समय बहुत: ही खटकती है । और भी कितने ही स्थानों पर ऐसे रचनादोष पाये जाते हैं, जिनमें से कुछ का उल्लेख पहले भी किया जा चुका है।
(इ) पदस्थ ध्यान के वर्णन में, एक स्थान पर मट्टारकजी, 'ही' 'मंत्र के जप का विधान करते हुए, लिखते हैं... वर्णान्तः पार्श्वजिनोऽधोरेफरतलगतः सधरेन्द्रः .: . - तुर्यस्वरः सविन्दुः स भवेत्पद्मावतीसंशः ॥ ७२ ॥
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