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[ ७६ म्लेच्छराजादिभिर्दत्तास्तावन्त्यो नृपवल्लभाः।
अप्सर. संकथा दोणी यकाभिरवतारिताः ॥ ३७-३५॥ इन पचों से यह भी प्रकट है कि खजातीय कन्याएँ ही भोगयोग्य नहीं होती बल्कि म्लेच्छ जाति तक की विजातीय कन्याएँ भी भोगयोग्य होती हैं, और इसलिये भट्टारकजी का स्वजातीय कन्याओं को है। 'भोक्तुं भोजयितुं योग्या' लिखना ठीक नहीं है-वह आदिपुराण की नीति के विरुद्ध है।
२-एक स्थान पर भट्टारकजी, कन्या के स्वयंवराऽधिकार का नियंत्रण करते हुए लिखते हैं:
पित्रादिदात्रभावे तु कन्या कुर्यात्स्वयंवरम् ।
इत्येवं केचिदाचार्याः प्राहुमहति संकटे ॥ ३॥ इस पद्य में कन्या को 'स्वयंवर' का अधिकार सिर्फ उस हालत में दिया गया है जबकि उसका पिता, पितामह, भाई आदि कोई भी बांधव कन्यादान करने वाला मौजूद न हो। और साथ ही यह भी कहा गया है कि स्वयंवर की यह विधि कुछ आचार्यों ने महासंकट के समय बतलाई है । परन्तु कौन से भाचायों ने बतलाई है ऐसा कुछ लिखा नहीं-भगवजिनसेन ने तो बतलाई नहीं। आदिपुराण में स्वयंवर को संपूर्ण विवाहविधियों में श्रेष्ठ ' ( वरिष्ठ) बतलाया है और उसे 'सनातनमार्ग' लिखा है। उसमें राजा प्रकम्पन की पुत्री 'सुलोचना' सती के जिस स्वयंवर का उल्लेख है वह सुलोचना के पिता आदि की मौजूदगी में ही बड़ी खुशी के साथ सम्पादित दुमा था। साथ ही, भरत चक्रवर्ती ने उसका बड़ा अभिनंदन किया था मौर उन लोगों को सत्पुरुषों द्वारा पूज्य ठहराया था जो ऐसे सनातन
मागों का पुनरुद्धार करते हैं । ययाःShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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