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अनुरूप कुरूप वर के साथ विवाह हो जाना अनुचित नहीं कहा जा सकता--उस कुरूप के लिये वह कुरुरा ' उचिता , ही है । अतः विवाहयोग्य कन्या ' रूपवती ' ही हो ऐसा व्यापक नियम कदापि आदरणीय तथा व्यवहरणीय नहीं हो सकता - वह व्यक्तिविशेष के लिये ही उपयोगी पड़ सकता है। इसी तरह पर 'पितृदत्ता' आदि दूसरे विशेषणों की त्रुटियों का भी हाल जानना चाहिये ।
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भट्टारकजी उक्त पथ के बाद एक दूसरा पद्य निम्न प्रकार से देते हैं:रूपवती स्वजातीया स्वतोलध्वन्यगोत्रजा ।
भोक्तुं भोजयितुं योग्या कन्या बहुकुटुम्बिनी ॥ ३६ ॥ यहाँ विवाहयोग्य कन्या का एक विशेषण दिया है 'स्वजातीया'अपनी जाति की — और यह विशेषण 'सवर्णा' का ही पर्यायनाम जान पड़ता है; क्योंकि 'जाति' शब्द 'वर्ण' अर्थ में भी प्रयुक्त होता है— यादिपुराण में भी वह बहुधा 'वर्ण' अर्थ में प्रयुक्त हुआ हैमूल जातियाँ भी वर्ण ही हैं । परन्तु कुछ विद्वानों का कहना है कि यह विशेषण - पद अत्राल, खंडेलवाल आदि उपजातियों के लिये प्रयुक्त हुआ है और इसके द्वारा अपनी अपनी उपजाति की कन्या से ही विवाह करने को सीमित किया गया है। अपने इस कथन के समर्थन में उन लोगों के पास एक युक्ति भी है और वह यह कि 'यदि इस पद्यका ] आशय सवर्णा का ही होता तो उसे यहाँ देने की जरूरत ही न होती; क्योंकि भट्टारकजी पूर्वपद्य में इसी आशय को 'वर्णविरुद्ध संत्यक्तां' पद के द्वारा व्यक्त कर चुके हैं, वे फिर दोबारा उसी बात को क्यों लिखने ? परन्तु इस युक्ति में कुछ भी दम नहीं है । कहा जा सकता है कि एक पद्य में जो बात एक ढंग से कही गई है वही दूसरे पद्य में दूसरे ढंग से बतलाई गई है। इसके सिवाय, भट्टारकजी का सारा ग्रंथ पुनरुक्तियों से भरा हुआ है, वे इतने सावधान नहीं थे जो ऐसी बारी
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