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[ ७३ ] यही सब इस ग्रंथ की दोनों (वतचर्या और बतावतरण) क्रियाओं का आदिपुराण के साथ विरोध है । मालूम नहीं जबे इन क्रियाओं को प्रायः आदिपुराण के शब्दों में हो रखना था तो फिर यह व्यर्थ की गड़बड़ी क्यों की गई और क्यों दोनों क्रियाओं के कथन में यह असामंजस्य उत्पन्न किया गया !! भट्टारकी लीला के सिवाय इसे और क्या कहा जा सकता है ? भट्टारकजी ने तो अध्याय के अन्त में जा कर इन क्रियाओं के अस्तित्व तक को भुला दिया है और 'इत्थं मौजीबन्धन पालनीय' आदि पद के द्वारा इन क्रियाओं के कथन को भी मौंजीबन्धन का-यज्ञोपवीत क्रिया का ही कथन बतला दिया है !! इसके सिवाय, एक बात और भी जान लेने की है और वह यह कि श्रावकाचार अथवा श्रावकीय व्रतों का जो उपदेश 'बतचर्या' क्रिया के अवसर पर होना चाहिये था * उसे भट्टारकजी ने ' व्रतावतरण' क्रिया के भी बाद, दसवें अध्याय में दिया है और व्रतचर्या के कथन में वैसा करने की कोई सूचना तक भी नहीं दी । ये सब बातें आपके रचना-विरोध और उसके बेदंगेपन को सूचित करती हैं । आपको कम से कम ' व्रतावतरण क्रिया को दसवें अध्याय के अन्त में, अथवा ग्यारहवें के शुरू में-विवाह से पहले-देना चाहिये था । इस प्रकार का रचना-सम्बन्धी विरोध अथवा बेढंगापन और भी बहुत से स्थानों पर पाया जाता है, और वह सब मिलकर भट्टारकनी की ग्रंथरचना-संबंधी योग्यता को चौपट किये देता है।
“वतचर्या के अवसर पर उपासकाध्ययन के उपदेशों का संक्षेप में संग्रह होता है, यह बात भादिपुराण के निम्न वाक्य से भी प्रकट है:
अथातोऽस्य प्रवक्ष्यामि व्रतचर्यामनुक्रमात् । स्थाधनोपासकाध्यायः समासेनानुसंहतः ॥ ४०-१६५ ।।
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