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[ ७२ ] शास्त्र के अध्ययन का भी सविशेष रूप से विधान पाया जाता है, * जिसे भट्टारकजी ने शायद अनुपयोगी समझा हो । इसी तरह पर व्रतावतरण' क्रिया के कथन में, 'व्रतावतरणं चेदं' से पहले के निम्न दो पद्यों को भी आपन छोड़ दिया है, जिनमें से दूसरा पद्य जो 'सार्वकालिक वत' का उल्लग्न करने वाला है, खासतौर से जरूरी था
नतोऽयाधीतविद्यस्य वनवृत्त्यवतारणम् । विशेषविषयं तच्च स्थितस्यौत्सर्गिके व्रते ॥ १२ ॥ मधुमांसपरित्यागः पंचोदुम्बरवर्जनम् ।
हिंसदिविरतिश्चास्य व्रतं स्यात्सार्वकालिकम् ॥ १२३ ॥ इन पद्यों के न होने से 'व्रतावतरणं चेदं' नाम का पद्य असम्बद्ध जान पड़ता है—'यावद्विद्या समाप्तिः' आदि पूर्व पद्यों के साथ उसका कोई सम्बन्ध ही ठीक नहीं बैठता । और 'वस्त्राभरण' नाम का उत्तर पद्य भी, आदिपुराण के पद्य नं० १२५ और १२६ के उत्तरार्ध तथा पूर्वार्ध को मिलाकर बनाए जाने से कुछ बेढंगा हो गया है जिसका उल्लेख ग्रंथ के संग्रहत्व का दिग्दर्शन कराते हुए किया जाचुका है। इसके सिवाय, भट्टारकजी ने व्रतावतरण क्रिया का निम्न पद्य भी नहीं दिया और न उसके आशय का ही अपने शब्दों में उल्लेख किया है, जिसके अनुसार 'कामब्रह्मवत' का अवतार (त्याग) उस वक्त तक नहीं होता-वह बना रहता है-जब तक कि विवाह नाम की उत्तर क्रिया नहीं हो लेती:
भोगब्रह्मवतादेवमवतीणों भवेत्तदा ।। कामब्रह्मवतं चास्य तावद्यावक्रियोत्तरा ॥ १२७ ॥
* पं० पन्नालालजी सोनी ने भी इस विधान का अपने अनुवाद में उल्लेख किया है परन्तु पाप से यह सस्त गलती हुई जो आपने 'यावद्विद्या समाप्तिः' आदि चारों ही पद्यों को बतावतरण क्रिया के पद्य बतला दिया है। आपके "इसी (व्रतावतरण ) क्रिया में यह
और भी बतलाया है" शब्द बहुत खटकते हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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