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प्रतिज्ञादि-विरोध। यह त्रिवर्णाचार अनेक प्रकार के विरुद्ध तथा अनिष्ट कथनों से भरा हुआ है । ग्रंथके संग्रहत्व प्रादि का दिग्दर्शन कराने के बाद, अब मैं उन्हीं को लेता हूँ और उनमें भी सब से पहले उन कथनों का दिग्दर्शन कराना चाहता हूँ जो प्रतिज्ञा आदि के विरोध को लिये हुए हैं । इस सब दिग्दर्शन से ग्रंथ की रचना, तरतीब, उपयोगिता और प्रमाणता आदि विषयों की और भी कितनी ही बातें पाठकों के अनुभव में आजाएँगी और उन्हें यह अच्छी तरह से मालूम पड़ जायगा कि इस ग्रंथ में कितना धोखा है, कितना जाल है और वह एक मान्य जैन ग्रन्थ के तौर पर खीकार किये जाने के लिये कितना अयोग्य है अथवा कितना अधिक भापत्ति के योग्य है:..
(१) भट्टारक सोमसेनजी ने, प्रन्थ के शुरू में, ' यत्प्रोक्तं जिनसेनयोग्यगणिभिः' नामक पद्य के द्वारा जिन विद्वानों के प्रन्यों को देख कर उनके वचनानुसार-प्रन्य रचना की प्रतिज्ञा की है उनमें 'जिनसेनाचार्य' का नाम सब से प्रथम है और उन्हें मापने 'योग्यगणी ' भी, सूचित किया है । इन जिनसेनाचार्य का बनाया हुमा एक · पुराण' ग्रन्थ सर्वत्र प्रसिद्ध है जिसे 'प्रादिपुराण' अथवा. ' महापुराण ' भी कहते हैं और उसकी गणना बहुमान्य आर्ष ग्रन्थों में की जाती है । इस पुराण से पहले का दूसरा कोई भी पुराण अन्य ऐसा उपलब्ध नहीं है जिसमें गर्भाधानादिक क्रियानों का संक्षेप अथवा विस्तार के साथ कोई खास वर्णन दिया हो। यह पुराण इन क्रियामों के लिये ख़ास तौर से प्रसिद्ध है । भट्टारकजी ने अन्य के पाठवें अध्याय में इन क्रियाओं का वर्णन प्रारम्भ करते हुए, एक प्रतिज्ञा-वाक्य निम्न प्रकार से दिया है
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