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[ ५५ ] सोचने की बात है। परंतु अन्तर कुछ रहो या न रहो, इससे ग्रंथ की बेतरतीबी और उसके बेढंगेपन का हाल कुछ जरूर मालूम हो जाता है।
(ग) 'मोद' क्रिया के बाद, त्रिवर्णाचार में 'पुंसवन' और 'सीमन्त' नाम की दो क्रियाओं का क्रमशः निर्देश किया गया है और उन्हें यथाक्रम गर्भ से पाँचवें तथा सातवें महीने करने का विधान किया है। यथा:
सद्गर्भस्याथ पुष्ट यथं क्रियां पुंसवनाभिधाम् । कुर्वन्तु पंचमे मासि पुमांसः क्षेमभिच्छवः ॥६३॥ अथ सप्तमके मासे सीमन्तविधिरुच्यते ।
केशमध्ये तु गर्मिण्याः सीमा सीमन्तमुच्यते ॥७२॥ ये दोनों क्रियाएँ आदिपुराण में नहीं हैं और न भट्टारकजी की उक्त ३३ क्रियाओं की सूची में ही इनका कहीं नामोल्लेख है। फिर नहीं मालूम इन्हें यहाँ पर क्यों दिया गया है ! क्या भट्टारकजी को अपनी प्रतिज्ञा ग्रंथ की तरतीब और उसके पूर्वापर सम्बंध आदि का कुछ भी ध्यान नहीं रहा ? वैसे ही जहाँ जो जी में आया लिख मारा!! और क्या इसी को ग्रंथरचना कहते हैं ! वास्तव में ये दोनों क्रियाएँ हिन्दू धर्म की ख़ास क्रियाएँ (संस्कार) हैं । हिन्दुओं के धर्म ग्रंथों में इनका विस्तार के साथ वर्णन पाया जाता है । गर्भिणी स्त्री के केशों में माँग पाड़ने को ‘सीमन्त' क्रिया कहते हैं, जिसके द्वारा वे गर्भ का खास तौर से संस्कारित होना मानते हैं । और 'पुंसवन' क्रिया का अभिप्राय उनके यहाँ यह माना जाता है कि इसके कारण गर्भिणी के गर्भ से लड़का पैदा होता है, जैसा कि मुहूर्तचिंतामणि की पीयूषधारा टीका के निम्न वाक्य से भी प्रकट है"पुमान् सूयतेऽनेन कर्मति व्युत्पन्या पुंसवनकर्मणा पुंस्त्वहेतुना।"
परंतु जैन सिद्धांत के अनुसार, इस प्रकार के संस्कार से, गर्भ में माई दुई लड़की का लड़का नहीं बन सकता । इसलिये जैन धर्म से इस संस्कार का कुछ सम्बंध नहीं है। भगवज्जिनसेन के वचनानुसार इन दोनों
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