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[ ५४ ] पुत्रजन्मनि संजात प्रीतिसुप्रीतिके क्रिये । प्रियोद्भवश्च सोत्साहः कर्तव्यो जातकर्मणि ।। ६१ ॥ सजनेषु परा प्रीतिः पुत्रे सुप्रीतिरुच्यते । प्रियोद्भवश्च देवेषूत्साहस्तु क्रियते महान् ॥ १२ ॥ यह सब कथन भी भगवजिनसेनाचार्य के विरुद्ध है-क्रमविरोध को भी लिये हुये है-और इसमें 'प्रीति' आदि तीनों क्रियाओं का जो स्वरूप दिया है वह बड़ा ही विलक्षण जान पड़ता है । आदिपुराण के साथ उसका कुछ भी गेल नहीं खाता; जैसा कि आदिपुराण के निम्न वाक्यों से प्रकट है
गर्भाधानात्परं मासे तृतीये संप्रवर्तते । प्रीतिर्नाम क्रिया प्रीतैर्याऽनुष्ठया द्विजन्मभिः ।। ७७ ।। प्राधानात्पंचमे मासि क्रिया सुप्रीतिरिष्यते। या सुप्रियोकन्या परमोपासकवतैः॥८० ॥ पियोद्भवः प्रसूनायां जातकर्मविधिः स्मृतः । जिनजातकमाध्याय प्रवर्यो यो यथाविधि ॥८॥
-३८ वा पर्व । पिछले श्लोक से यह भी प्रकट है कि आदिपुराण में 'जातकर्मविधि' को ही 'प्रियोद्भव' क्रिया बतलाया है । परन्तु भट्टारकजी ने प्रियोद्भव' को 'जातकर्म से भिन्न एक दूसरी क्रिया प्रतिपादन किया है । यही वजह है जो उन्होंने अध्याय के अन्त में, प्रतिपादित क्रियाओं की गणना करते हुए, दोनों की गणना अलग अलग क्रियाओं के रूप में की है । और इसलिये आपका यह विधान भी जिनसेनाचार्य के विरुद्ध है।
एक बात और भी बतला देने की है और वह यह कि, भट्टारकजी ने ' जातकर्म विधि ' में 'जननाशौच ' को भी शामिल किया है और उसका कथन छह पद्यों में दिया है। परंतु 'जननाशाच 'को
मापने अलग क्रिया भी बतलाया है, तब दोनों में अन्तर क्या रहा, यह Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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