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[६ ] * भाषोडशाच्च [ दा ] द्वाविंशाश्चतुर्विंशात्तु [च ] वत्सरात् । ब्रह्मक्षत्रविशां कालो ह्युपनयनजः [ ल औपनायनिकः ] परः॥५॥ श्रत पतन्त्येते सर्वधर्मबहिष्कृताः। प्रतिष्ठादिषु कार्येषु न योज्या ब्राह्मणोत्तमैः ॥ ६॥
इन पद्यों में से पहले पद्य में उपनयन के साधारण काल का, दूसरे में विशेष काल का, तीसरे में काल की उत्कृष्ट मर्यादा का और चौथे में उत्कृष्ट मर्यादा के भीतर भी यज्ञोपवीत संस्कार न होने के फल का उल्लेख किया गया है, और इस तरह पर चारों पद्यों में यह बतलाया गया है कि-'गर्भ से आठवें वर्ष ब्राह्मण का,ग्यारहवें वर्ष क्षत्रिय का और बारहवें वर्ष वैश्य का यज्ञोपवीत संस्कार होना चाहिये । परंतु जो ब्राह्मण (विद्याध्ययनादि द्वारा ) ब्रह्मतेज का इच्छुक हो उसका गर्भ से पाँच वर्ष, राज्यबल के अर्थी क्षत्रिय का छठे वर्ष और व्यापारादि द्वारा अपना उत्कर्ष चाहने वाले वैश्य का आठवें वर्ष उक्त संस्कार किया जाना चाहिये । इस संस्कार की उत्कृष्ट मर्यादा ब्राह्मण के लिये १६ वर्ष तक, क्षत्रिय के लिये २२ वर्ष तक और वैश्य के लिये २४ वर्ष तक की है । इस मर्यादा तक भी जिन लोगों का उपनयन संस्कार न हो पावे, वे अपनी अपनी मर्यादा के बाद पतित हो जाते हैं, किसी भी धर्म कर्म के अधिकारी नहीं रहते-उन्हें सर्व धर्मकार्यों से बहिष्कृत समझना चाहिये-और इसलिये ब्राह्मणों को चाहिये कि वे प्रतिष्ठादि धर्मकार्यों में उनकी योजना न करें। ___ यह सब कथन भी भगवजिनसेन के विरुद्ध है । आदिपुराण में वर्णभेद से उपनयन काल में कोई भेद ही नहीं किया--सब के लिये गर्भ से पाठवें वर्ष का एक ही उपनयन का साधारणकाल रक्खा गया है। यथा:
* इस पद्य में ब्रैकिटों के भीतर जो पाठभेद दिया है वह पद्य का मूल पाठ है जो अनेक ग्रंथों में उल्लेखित मिलता है और जिसे संभवतः यहाँ बदल कर रखा है।
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