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[६० ] यहाँ पर मैं इतना और भी बतला देना चाहता हूँ कि । लिपि. संस्थानसंग्रह ' ( अक्षराभ्यास ) नामक क्रिया के बाद भी एक क्रिया
और बढ़ाई गई है और उसका नाम है ' पुस्तकग्रहण' । यह क्रिया भी आदिपुराण में नहीं है और न तेतीस क्रियाओं की सूची में ही इसका नाम है । लिपिसंस्थान क्रिया का विधान करते हुए, 'मौञ्जीबंधनतः पश्चाच्छास्त्रारंभो विधीयते' इस वाक्य के द्वारा, यद्यपि, यह कहा गया था कि शास्त्राध्ययन का आरम्भ मौंजीबन्धन ( उपनयन क्रिया ) के पश्चात् होता है परन्तु यहाँ ' पुस्तकाग्रहण' क्रिया को बढ़ा कर उसके द्वारा उपनयन संस्कार से पहले ही शास्त्र के पढ़ने का विधान कर दिया है और इस बात का कुछ भी ध्यान नहीं रक्खा कि पूर्व कथन के साथ इसका विरोध आता है । यथा:
उपाध्यायेन तं शिष्यं पुस्तकं दीयते मुदा।। शिप्योऽपि च पठेच्छास्त्रं नान्दीपठनपूर्वकम् ॥१८॥ (ज) भट्टारकजी ने लिपि-संस्थान-संग्रह' मामक क्रिया को देते हुए उसका मुहूर्त भी दिया है, जब कि दूसरी क्रियाओं में से गर्भाधान, उपनयन ( यज्ञोपवीत) और विवाहसंस्कार जैसी बड़ी क्रियाओं तक का आपने कोई मुहूर्त नहीं दिया । नहीं मालूम इस क्रिया के साथ में मुहूर्त देने की
आपको क्या सूझी और आपका यह कैसा रचना-क्रम है जिसका कोई एक तरीका, नियम अथवा ढंग नहीं !! अस्तु, इस मुहूर्त के दो पद्य इस प्रकार हैं:*मृगादिपंचस्वपिते [भ] घुमूले, हस्तादिकं च क्रियते [त्रितये]ऽश्विनीषु
* इस पद्य में जो पाठ भेद त्रैकिटों में दिया गया है वही मूलका शुद्ध पाठ है, सोनीजी की अनुवाद-पुस्तक में वह गलत रूप से दिया हुआ है । पद्य का अनुवाद भी कुछ गलत हुआ है । कमसे कम 'चित्रा' के बाद ' स्वाती' का और ' पूर्वाष द से पहले 'पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र का नाम और दिया जाना चाहिये था। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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