________________
[४७] और इस तरह पर आपने अपने को प्रयोगंवद ( प्रयोगवादी) अथवा प्रयोगवद की नीतिका अनुसरण करने वाला भी सूचित किया है । हो सकता है भट्टारकजी की उक्त चिन्ता कुछ ठीक हो-वे अपनी स्थिति
और कमजोरी आदि को श्राप जानते थे-परन्तु जब उनको अपनी रचना से तेज अथवा प्रभाव पड़ने की कोई आशा नहीं थी तब तो उन्हें दूसरे विद्वानों के वाक्यों के साथ में उनका नाम देदेने की और भी ज्यादा जरूरत थी। ऐसी हालत में भी उनका नाम न देना उक्त दोनों कारणों के सिवाय और किसी बातको सूचित नहीं करता । रही 'प्रयोगंवद' की नातिका अनुसरण करने की बात, प्रयोगंवद की यह नीति कदापि नहीं होती कि वह दूसरे की रचना को अपनी रचना प्रकट करे । यदि ऐसा हो तो 'काव्यचोर' और 'प्रयोगंवई' में फिर कुछ भी अन्तर नही रह सकता । वह तो इस बात की बड़ी सावधानी रखता है और इसी में आनन्द मानता है कि दूसरे विद्वान का जो वाक्य प्रयोग उद्धृत किया जाय उसके विषय में किसी तरह पर यह जाहिर कर दिया जाय कि यह अमुक विद्वान का वाक्य है अथवा उसका अपना वास्य नहीं है । उसकी रचना-प्रणाली ही अलग होती है और वह
नहीं, तो भी कितने ही बुद्धिमान नवीन नवीन प्रयोगों को पसंद करते है, अतः उनका चित्त इससे अवश्य अनुरंजित होगा।"
अनुवादकजी और तो क्या, लङ्लकार की प्रकरिष्यं' क्रिया का अर्थ भी ठीक नहीं समझ सके ! तब 'इतिसुधियः केचित्तयोगवदाः' का अर्थ समझना तो उनके लिये दूर की बात थी । भागन पुरानन पचाद्धरण के समर्थन में नवीन नवीन प्रयोगों को पसंद करने की बात तो खूब कही !! और 'उनका चित्त इससे अवश्य मनुगजन होगा' इस मन्तिम वाक्यावतार न तो पापक गज़ब ही हा दिया !!!
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com