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[ २७ ] यह 'पूज्यपाद-उपासकाचार ' का पद्य है और उसमें इसका संख्यानम्बर ११ है।
वधादसत्याचौर्याच कामाद् ग्रंथानिवर्तनम् ।
पंचकाणुव्रतं रात्रिभुक्तिः षष्ठमणुव्रतम् ॥ १०-८५ ॥ यह चामुण्डराय-विरचित 'चारित्रसार' ग्रंथ के अणुव्रत-प्रकरण का अन्तिम पद्य है।
अन्होमुखेऽवसाने च यो द्वे द्वे घटिके त्यजेत् । निशाभोजनदोषोऽनात्यसौ पुण्यभोजनम् ॥ १०-८६ ॥ यह हेमचन्द्राचार्य के 'योगशास्त्र' का पद्य है और उसके तीसरे प्रकाश में नं० ६३ पर पाया जाता है । इसमें 'त्यजन्' की जगह 'त्यजेत्' और 'पुण्यभाजनम्' की जगह यहाँ 'पुण्यभोजनम्' बनाया गया है । पद्यका यह परिवर्तन कुछ अच्छा मालूम नहीं होता। इससे 'सुबह शामकी दो दो घड़ी छोड़कर दिनमें भोजन करनेवाला मनुष्य पुण्यका भाजन (पात्र) होता है' की जगह यह श्राशय हो गया कि 'जो सुबह शामकी दो दो घड़ी छोड़ता है वह पुण्य भोजन * करता है, और यह आशय अथवा कथनका ढंग कुछ समीचीन प्रतीत नहीं होता।
भास्तामेतद्यदिह जननी वल्लभां मन्यमाना निन्द्यां चे विदधति जना निस्त्रपाः पीतमद्याः । तन्नाधिक्यं पथि निपतिता यत्किरत्सारमेयात्
वक्ते मूत्रं मधुरमधुरं भाषमाणाः पिबन्ति ॥ ६-१६७ ॥ यह मद्यपान के दोषको दिखाने वाला पद्य पद्मनन्दि-आचार्यविरचित 'पद्मनन्दिपंचविंशति' का २२ वाँ पद्य है।
* पं० पन्नालालजी सोनी ने भी, अपने अनुवाद में, यही लिखा कि "वह पुरुष पुण्यभोजन करता है।"
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