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इस श्लोक में स्नान के सात भेद बतलाये गये हैं-मंत्र स्नान, भूमि ( मृत्तिका ) स्नान, अग्नि ( भस्म ) स्नान, वायुस्नान, दिव्यस्नान, जलस्नान तथा मानसस्नान - और 6 यह योगि याज्ञवल्क्य' का वचन है । चिट्ठलात्मजनारायण कृत 'आन्हिकसूत्रावलि' में तथा श्रीवेङ्कटनाथ-रचित 'स्मृतिरत्नाकर' में भी इसे योगियाज्ञवल्क्य का वचन बतलाया है और 'शब्द कल्पद्रुम' कोश में भी 'स्नान' शब्द के नीचे यह उन्हीं के नाम से उद्धृत पाया जाता है ।
सिंहकर्कटयोर्मध्ये सर्वा नद्यो रजस्वलाः । तासां तटे न कुर्वीत वर्जयित्वा समुद्रगाः ॥ ७८ ॥ उपाकर्मणि चोत्सर्गे प्रातः स्नाने तथैव च । चन्द्रसूर्यग्रहे चैव रजो दोषो न विद्यते ॥ ७६ ॥ धनुस्सहस्राण्यष्टौ तु गतिर्यसां न विद्यते ।
न ता नद्यः समाख्याता गर्तास्ताः परिकीर्तिताः ॥ ८० ॥ - तृतीय अध्याय | ये तीनों पद्य जरा २ से परिवर्तन के साथ 'कात्यायन स्मृति' से लिये गये मालूम होते हैं और उक्त स्मृति के दसवें खण्ड में क्रमशः नं० ५ ७ तथा ६ पर दर्ज हैं । 'आन्हिक सूत्रावलि' में भी इन्हें
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' कात्यायन ' ऋषि के वचन लिखा है । पहले पद्य में ' मासद्वयं श्रावणादि' की जगह 'सिंहकर्कटयोर्मध्ये' और 'तासुस्नानं ' की जगह ' तासांत टे' बनाया गया है, दूसरे में 'प्रेतस्नाने' की जगह 'प्रातः स्नाने' का परिवर्तन किया गया है और तीसरे में 'नदीशब्द वहा: ' की जगह ' नद्यः समाख्याताः' ऐसा पाठ भेद किया गया है । इन चारों परिवर्तनों में पहला और अन्त का दोनों परिवर्तन तो प्राय: कोई अर्थभेद नहीं रखते परन्तु शेष दूसरे और तीसरे परिवर्तन ने बड़ा भारी श्रर्थभेद उपस्थित कर दिया है । कात्यायन
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