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[ ४२ ] 'त्यागं लाता' पाठको ही शुद्ध समझा है--शुद्धिपत्र में भी उसका संशोधन नहीं दिया-- और अनुवाद में 'लाता' पद का सम्बंध उस दूसरी स्त्री के साथ जोड़ दिया है जो स्नान करके रजस्वला को छुवे । यह सब देखकर बड़ा ही खेद होता है ! आप लिखते हैं--"अन्त में यह स्पर्श करने वाली स्त्री अपने कपड़े भी उतार दे और उस रजस्वला के कपड़े भी उतार दे और स्नान करले ।" समझ में नहीं आता, जब उस दूसरी स्त्री को अन्त में भी अपने कपड़े उतारने तथा स्नान करने की ज़रूरत बाकी रह जाती है और इस तरह पर वह उस अंतिम स्नान से पहले अशुद्ध होती है तो उस अशुद्धा के द्वारा रजस्वला की शुद्धि कैसे हो सकती है ! सोनीजी ने इसका कुछ भी विचार नहीं किया
और वैसे ही खींचतान कर स्नाता' पद का सम्बंध उस दूसरी स्त्री के साथ जोड़ दिया है जिसके साथ पद्य में उसका कोई सम्बंध ठीक नहीं बैठता | और इसलिये यह परिवर्तन यदि भट्टारकजी का ही किया हुआ है तो इससे उनकी योग्यता की और भी अच्छी कलई खुल जाती है।
यहाँ तक के इस सम्पूर्ण प्रदर्शन से यह बिलकुल स्पष्ट हो जाता है कि यह ग्रंथ, जैसा कि लेखारम्भ में जाहिर किया गया था, वास्तव में एक बहुत बड़ा संग्रह ग्रंथ है और इसमें जैन अजैन दोनों ही प्रकार के विद्वानों के बाक्यों का भारी संग्रह किया गया है— ग्रंथ की २७०० श्लोकसंख्या में से शायद सौ डेढसौ श्लोक ही मुशकिल से ऐसे निकलें जिन्हें ग्रंथकार की स्वतन्त्र रचना कहा जा सके, बाकी सब श्लोक ऐसे ही हैं जो दूसरे जैन- अजैन ग्रंथों से ज्यों के त्यों अथवा कुछ परिवर्तन के साथ उठा कर रखे गये हैं-अधिकांश पद्य तो इसमें अजैन ग्रंथों तथा उन जैन ग्रंथों पर से ही उठा कर रक्खे गये हैं जो प्रायः अजैन मंथों के आधार पर या उनकी छाया को लेकर बने हुए हैं। साथ ही, पह भी स्पष्ट हो जाता है कि ग्रंथकार ने अपने प्रतिज्ञा-वाक्यों तथा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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