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[ ४४ ] एक बड़ा ही निन्द्य तथा नीच कर्म है । ऐसा जघन्य आचरण करने वालों को श्रीमोमदेवार ने 'काव्यचोर' और 'पातकी' लिखा है । यथा:--
कृत्वा कृती: पूर्वकृताः पुरस्तात्प्रत्यादरं ताः पुनरीक्षमाणः । तथैव जल्दथ योऽन्यथा वा स काव्यचोरोऽस्तु स पातकी च ॥
-यशस्तिलक। __ श्री अजितसेनाचार्य ने तो दूसरे काव्यों के सुन्दर शब्दार्थों की छाया तक हरने वाले कवि को 'चोर' ( पश्यतोहर) बत. लाया है । यथा:
श्रन्यकाव्यसुशब्दार्थछायां नो रचयेत्कविः । स्वकाव्ये सोऽन्यथा लोके पश्यतोहरतामटेत् ॥६५॥
-अलकारचिन्तामणि । ऐसी हालत में भट्टारक सोगसेन जी इस कलंक से किसी तरह भी मुक्त नहीं हो सकते । वे अपने ग्रंथ की इस स्थिति में, उक्त आचार्यों के निर्देशानुसार, अवश्य ही 'काव्यचोर' और 'पातकी' कहलाये जाने के योग्य हैं और उनकी गणना तस्कार लेखकों में की जानी चाहिये । उन्हें इस कलंक से बचने के लिये कमसे कम उन पद-वाक्यों के साथ में जो ज्यों के त्यों उठाकर रक्खे गये हैं उन विद्वानों अथवा उनके ग्रन्थों का नाम जरूर देदेना चाहिये था जिनके वे वचन थे; जैसा कि 'आचारादर्श' और 'मिताक्षरा' आदि ग्रन्थों के कर्ताओं ने किया है । ऐसा करने से ग्रंथ का महत्व कम नहीं होता किन्तु उसकी उपयोगिता और प्रामाणिकता बढ़ जाती है । परन्तु भट्टारकजी ने ऐसा नहीं किया और उसके दो खास कारण जान पड़ते हैं--एक तो यह कि, वे हिन्दू धर्म की बहुतसी बातों को प्राचीन जैनाचार्यों अथवा जैनविद्वानों के नाम से जैनसमाज में प्रचारित करना चाहते
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