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में भी इन्हें 'उशना' के वचन लिखा है । मिताक्षरा आदि ग्रंथों में इन पयों का जो रूप दिया है उससे मालूम होता है कि पहले पद्य में सिर्फ 'च' की जगह 'चेत्' बनाया गया है, दूसरे का उत्तरार्ध 'सा संचेलावगाह्यापः स्नात्वा स्नात्वा पुनः स्पृशेत्' नामक उत्तरार्ध की जगह कायन किया गया है और तीसरे में त्यागस्ततः' की जगह 'त्याग स्नाना' का परिवर्तन हुआ है । इन तीनों परिवर्तनों में से पहला परिवर्तन निरर्थक हैं और उसके द्वारा पद्य का प्रतिपाद्य विषय कुछ कम हो जाता है - जो स्त्री ज्वर से पीड़ित हो वह यदि रजस्वला हो जाय तो उसी की शुद्धि का विधान रहता है किन्तु जो पहले से रजस्वला हो और पीछे जिसे ज्वर आजाय उसकी शुद्धि की कोई व्यवस्था नहीं रहती । 'च' शब्द का प्रयोग इस दोष को दूर कर देता है और वह दोनों में से किसी भी अवस्था की रजस्वला के लिये एक ही शुद्धि का विधान बनलाना है । अतः 'च' की जगह ' चेत् ' का परिवर्तन यहाँ ठीक नहीं हुआ | दूसरा परिवर्तन एक विशेष परिवर्तन है और उसके द्वारा संचल अवगाहन की बात को छोड़कर उस दूसरी स्त्री के सादा स्नान की बात को ही अपनाया गया है । रहा तीसरा परिवर्तन, वह बड़ा ही विलक्षण जान पड़ता है, उसके ' स्नाता' पद का सम्बन्ध अंतिम 'सा' पद के साथ ठीक नहीं बैठना और 'त्याग' पद तो उसका और भी ज्यादा खटकता है । हो सकता है, कि यह परिवर्तन कुछ असावधान लेखकों की ही कर्तन हो; उनके द्वारा 'त्यागस्ततः' का 'त्यागं लाता' लिखा जाना कुछ भी मुशकिल नहीं है, क्यों कि दोनों में अक्षरों की बहुत कुछ समानता है, परंतु सोनीजी ने
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* शायद इसीलिये पं० पन्नालालजी सोनी इस पद्य के अनुवाद में लिखने दें - कोई ज्वर से पीडित स्त्री (यदि) रजस्वला हांजाय तो उसकी शुद्धि कैसे हो ? कैसी क्रिया करने से वह शुद्ध हो सकती है ।"
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