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[३६] यह पद्य, 'नोदेति वै ' की जगह 'नोदयते' पाठ भेद के साय, 'कश्यप' ऋषि का वचन है । याज्ञवल्क्यस्मृति की 'मिता• क्षरा' टीका में भी, 'यथाह कश्यपः' वाक्य के साथ, इसे 'कश्यप' ऋषि का वचन सूचित किया है।
पूर्वमायुः परीक्षेत पश्चाल्लक्षणमेव च ।
प्रायुहीनजनानां च लक्षणैः किं प्रयोजनम् ॥ ११-८॥ यह 'सामुद्रक' शास्त्र का वचन है । शब्दकल्पद्रुम कोश में इसे किसी ऐसे सामुद्रक शास्त्र ते उद्धृत किया है जिसमें श्रीकृष्ण तथा महेश का संवाद है और उसमें इसका तीसरा चरण 'प्रायुहीनं नराणां चेत् ' इस रूप में दिया हुआ है ।
महानद्यन्तरं यत्र गिरिा व्यवधायकः ।
वाचो यत्र विभिद्यन्ते तद्देशान्तरमुच्यते ॥ १३-६६ ॥ यह 'देशान्तर' का लक्षण प्रतिपादन करने वाला पद्य 'वृद्धमनु' का वचन है, ऐसा शुद्धिविवेक नामक ग्रंथ से मालूम होता है, जिसमें 'वृद्धमनुरप्याह' इस वाक्य के साथ यह उद्धृत किया गया है । यहाँ पर इसके चरणों में कुछ क्रम-भेद किया गया है-पहले चरण को तीसरे नम्बर पर और तीसरे को पहले नम्बर पर रक्खा गया हैबाकी पाठ सब ज्यों का त्यों है ।
पितरो चेन्मृतौ स्यातां दूरस्थोऽपि हि पुत्रकः ।
श्रुत्वा तहिनमारभ्य पुत्राणां दशरात्रकम् ॥१३-७१॥ यह पब, जिसमें माता पिता की मृत्यु के समाचार सुनने पर दूर देशान्तर में रहने वाले पुत्र को समाचार सुनने के दिन से दस दिन का सूतक बतलाया गया है, 'पैठीनसि ' ऋषि का वचन है । याज्ञ. वल्क्यस्मृति की 'मिताक्षरा' टीका में भी, जो एक प्राचीन ग्रंथ है और अदालतों में गान्य किया जाता है, 'इति पैठीनसि स्मरणात्'
कः।
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