________________
[४०] पाक्य के द्वारा इसे 'पैठीनसि' ऋषि का वचन सूचित किया है। यहाँ इसका चौथा चरण बदला हुआ है-'दशाहं सूतकी भवेत्' की जगह 'पुत्राणां दशरात्रकम्' बनाया गया है । और यह तबदीली बिलकुल भद्दी जान पड़ती है--'पुत्रकः' आदि पदों के साथ इन परिवर्तित पदों का अर्थसम्बंध भी कुछ ठीक नहीं बैठता, खासकर 'पुत्राणां' पद का प्रयोग तो यहाँ बहुत ही खटकता है-सोनीजी ने उसका अर्थ भी नहीं किया--और वह भट्टारकजी की योग्यता को और भी अधिकता के साथ व्यक्त कर रहा है ।
ज्वराभिभूता या नारी रजसा चेत्परिप्नुना । कथं तस्या भवेच्छौचं शुद्धिः स्यात्केन कर्मणा ।। ८६ ॥ चतुर्थेऽहनि संप्राप्त स्पृशेदन्या तु तां स्त्रियम् । स्नात्वा चैव पुनस्तां वै स्पृशेत् स्नात्वा पुनः पुनः ।। ८७ ॥ दशद्वादशकृत्वो वा ह्याचमेच पुनः पुनः । अन्त्ये च वाससा त्यागं स्नात्वा शुद्धा भवेत्तु सा ॥ ८ ॥
-१३ वाँ अध्याय । इन पद्यों में ज्वर से पीड़ित रजस्वला स्त्री की शुद्धि का प्रकार बतलाया गया है और वह यों है कि ' चौथे दिन कोई दूसरी स्त्री स्नान करके उस रजस्वला को छूवे, दोबारा स्नान करके फिर छुवे और इस तरह पर दस या बारह बार स्नान करके प्रत्येक स्नान के बाद उसे वे साथ ही बारबार आचमन भी करती रहे । अन्त में सब कपड़ों का ( जिन्हें रजस्वला ओढे पहने अथवा बिछाए हुए हो ) त्याग कर दिया जाय तो वह रजस्वला शुद्ध होजाती है' । ये तीनों पद्य जरासे परिवर्तन के साथ 'उशना' नागक हिन्दू ऋषि के वचन हैं, जिनकी 'स्मृति' भी · प्रौशनसधर्मशास्त्र' के नाम से प्रसिद्ध है । याज्ञवल्क्यस्मृति की मिताक्षरा टीका, शुद्धिविवेक और स्मृतिरत्नाकर आदि ग्रन्थों Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com