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का जो खास परिवर्तन किया गया है वह बड़ा ही विचित्र तथा विलक्षण जान पड़ता है और उससे मलत्याग के अवसर पर गौन का विधान न रहकर प्रातःकाल के समय मौन का विधान हो जाता है, जिसकी संगति कहीं से भी ठीक नहीं बैठती । मालूम होता है सोनीजी को भी इस पद्यकी विलक्षणता कुछ खटकी है और इसीलिये उन्होंने, पद्यकी असलियत को न पहचानते हुए, यों ही अपने मनगढन्त 'प्रभाते' का अर्थ “सामायिक करते समय" और 'प्रस्तावे' का अर्थ "टट्टी पेशाब करते समय" दे दिया है, और इस तरह से अनुवाद की भर्ती द्वारा भट्टारकजी के पद्य की त्रुटि को दूर करने का कुछ प्रयत्न किया है । परन्तु आपके ये दोनों ही अर्थ ठीक नहीं हैं-'प्रभात' का अर्थ 'प्रातःकाल' है न कि 'सामायिक' और 'प्रस्त्राव' का अर्थ 'मूत्र' है न कि 'मल-मूत्र' (टट्टी पेशाब) दोनों । और इसलिये अनुवाद की इस लीपापोती द्वारा मूल की त्रुटि दूर नहीं हो सकती और न विद्वानों की नजरों से वह छिप ही सकती है । हाँ, इतना ज़रूर स्पष्ट हो जाता है कि अनुवादकजी में सत्य अर्थ को प्रकाशित करने की कितनी निष्ठा, तत्परता और क्षमता है ।
खदिरश्च करंजश्च कदम्बश्च वटस्तथा । तित्तिणी वेणुवृत्तश्च निम्ब आम्रस्तथैव च ॥२-६३ ॥ अपामार्गश्च बिल्वश्च ह्यर्क आमलकस्तथा।
एते प्रशस्ताः कथिता दन्तधावनकर्मणि ॥ २-६४ ॥ ये दोनों पद्य, जिनमें दाँतन के लिये उत्तम काष्ठ का विधान किया गया है 'नरसिंहपुराण' के वचन हैं। आचारादर्श नामक ग्रंथ में भी इन्हें 'नरसिंहपुराण' के ही वाक्य लिखा है। इनमें से पहले पद्य में 'अाम्रनिम्बौ' की जगह निम्ब अाम्रः' का तथा 'वेणुपृष्ठश्च' की जगह 'वेणुवृक्षश्च' का पाठभेद पाया जाता है, और दूसरे पद्य
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