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[ ३३ ] में इसे ' आन्हिक कारिका' का वचन लिखा है और इसका उत्तरार्ध · उपवीतं सदा धार्य मैथुने तूपवीतिवत्' दिया है। भट्टारकजी ने उस उत्तरार्ध को · धारयेब्रह्मसूत्रं तु मैथुने मस्तके तथा' के रूप में बदल दिया है । परन्तु इस संग्रह और परिवर्तन के अवसर पर उन्हें इस बात का ध्यान नहीं रहा कि जब हम दो विद्वानों के परस्पर मतभेद को लिये हुए वचनों को अपना रहे हैं तो हमें अपने अन्धविरोध को दूर करने के लिये कोई ऐसा शब्द प्रयोग साथ में जरूर करना चाहिये जिससे ये दोनों विधिविधान विकल्प रूप से समझे जायँ । और यह सहज ही में ' तथा ' की जगह • ऽथवा' शब्द रखदेने से भी हो सकता था। भट्टारकजी ने ऐसा नहीं किया, और इससे उनकी संग्रह तथा परिवर्तन सम्बंधी योग्य. ताका और भी अच्छा परिचय मिल जाता है।
अर्धबिल्वफलमात्रा प्रथमा मृत्तिका मता। द्वितीया तु तृतीया तु तदर्धा प्रकीर्तिता ॥२-५० ।। शौच यत्नः सदा कार्यः शौचमूलो गृही स्मृतः। शौचाचारविहीनम्य समम्ता निष्फलाः क्रियाः ॥ २-५४ ॥ अत्यन्तमलिनः कायो नवच्छिद्रसमन्वितः ।
सवयव दिवारात्री प्राप्तः सानं विशाधनम् ॥ २-६८ ।। ये दक्षस्मृति ' के वाक्य हैं | तीसरा पद्य दक्षस्मृति के दूसरे अध्याय से ज्यों का त्यों उठा कर रक्खा गया है-शब्दकल्पद्रुम कोश में भी उसे 'दच ' ऋषि का वचन लिखा है । दूसरा पद्य उक्त स्मृति के पांचवें अध्याय का पद्य है और उसमें नं० २ पर दर्ज है--स्मृतिरत्नाकर में भी वह 'दक्ष' के नाम से उधृत पाया जाता हैं-उसमें सिर्फ 'द्विजः ' की जगह 'गृही' का परिवर्तन किया गया है। पहला पद्य भी पाँचवें अध्यायका है। पच है और उसमें
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