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[ २५ ] नासाप्रनिहिता शान्ता प्रसन्ना निर्विकारिका ।
वीतरागस्य मध्यस्था कर्तव्या चोत्तमा तथा ॥ ७४ ।। मालूम नहीं इन दोनों पयों को सोमसेनजी ने क्यों छोड़ा और क्यों इन्हें दूसरे पद्यों के साथ उद्धृत नहीं किया, जिनका उद्धृत किया जाना ऐसी हालत में बहुत ज़रूरी था और जिनके अस्तित्व के बिना अगला कथन कुछ अधूरा तथा लँडूरा सा मालूम होता है । सच है अच्छी तरह से सोचे समझे बिना याही पद्यों की उठाईधरी करने का ऐसा ही नतीजा होता है।
(८) ग्रन्थ के दसवें अध्याय में वसुनन्दिश्रावकाचार से छह और गोम्मटसार से आठ गाथाएँ प्रायः ज्यों की त्यों उठाकर रक्खी गई हैं, जिनमें से एक एक गाथा नमूने के तौर पर इस प्रकार है
पुवत्त णविहाणं पि मेहुणं सव्वदा विवजंतो। इथिकहादिणिवत्ती सत्तमं वंभचारी सो ॥ १२७॥ चत्तारि वि खत्ताई भाउगवंधेण होह सम्पत्तं।
अणुब्वयमहब्बयाई ण हवा देवाउगं मोतु ॥४१॥ इनमें से पहली माया वसुनन्दिश्रावकाचार की २९७ नम्बर की और दूसरी गोम्मटसार की ६५२ नम्बर की गाथा है। ये गाथाएँ भी किसी पूर्वकथित अर्थ का समर्थन करने के लिये ' उक्तं च ' रूप से नहीं दी गई बल्कि वैसे ही अपनाकर ग्रंथ का अंग बनाई गई हैं। प्राकृत की और भी कितनी ही गाथाएँ इस प्रन्य में पाई जाती हैं; के सब भी ' मूलाचार' मादि दूसरे प्रन्थों से उठाकर रक्खी गई हैं।
(१) भूपाल कवि-प्रणीत 'जिनचतुर्विशतिका ' स्तोत्र के भी कई पद्य प्रन्य में संगृहीत हैं। पहले अध्याय में 'सुप्तास्थितेन' और 'श्रीलीखायतनं' चौथे में 'किसलयितमनत्यं' और 'देव
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