________________
[ २३ ] ये दोनों पद्य एकसंधि-जिनसंहिता के ७ वें परिच्छेद में क्रमशः नं० १६, १७ पर दर्ज हैं और वहीं से उठाकर रक्खे गये मालूम होते हैं। साथ में आगे पीछे के और भी कई पद्य लिये गये हैं । इनमें से पहला पद्य वहाँ ज्यों का त्यों और दूसरे में महानयम्' की जगह 'महाग्नयः' तथा 'प्रसिद्धया' की जगह 'प्रसिद्धयः' ऐसा पाठ भेद पाया जाता है और ये दोनों ही पाठ ठीक जान पड़ते हैं । अन्यथा, इनके स्थान पर जो पाठ यहाँ पाये जाते हैं उन्हें पद्य के शेष भाग के साथ प्रायः असम्बद्ध कहना होगा । मालूम होता है ये दोनों पद्य संहिता में थोड़े से परिवर्तन के साथ आदिपुराण से लिये गये हैं । आदिपुराण के ४०वें पर्व में ये नं० ८३, ८४ पर दिये हुए हैं, सिर्फ पहले पद्य का चौथा चरण वहाँ ' पूजाङ्गत्वं समासाद्य ' है और दूसरे पद्य का पूर्वार्ध है-'कुण्डनये प्रणेतव्यास्त्रय एते महाग्नयः'। इनका जो परिवर्तन संहिता में किया गया है वह कोई अर्थविशेष नहीं रखता-उसे व्यर्थ का परिवर्तन कहना चाहिये ।
__ यहाँ पर इतना और भी बतला देना उचित मालूग होता है कि यह संहिता विक्रम की प्रायः १३ वीं शताब्दी की बनी हुई है और आदिपुराण विक्रम की ६ वी १० वीं शताब्दी की रचना है।
(७) वसुनन्दि-प्रतिष्ठापाठ से भी बहुत से पद्य लिये गये हैं। छठे अध्याय के १९ पद्यों की जांच में ११ पद्य ज्यों के त्यों और ८ पघ कुछ बदले हुए पाये गये । इनमें से तीन पच नमूने के तौर पर इस प्रकार हैं
लक्षणैरपि संयुक्त विम्ब दृष्टिविवर्जितम् । न शोभते यतस्तस्मात्कुर्याद् राष्टिप्रकाशनम् ॥ ३३ : मर्थनाशं विरोधं च तिर्यग्दृऐर्भयं तदा ।
मधस्तात्पुत्रनाशं च भार्यामरणमूर्घटक ॥ ३४ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com