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[ २४ ] शोकमुद्वेगसन्तापं सदा कुर्याद्धनक्षयम् ।
शान्ता सौभाग्यपुत्रार्थशान्तिवृद्धिप्रदानदृक् ॥ ३५ ॥ ये तीनों पच वसुनन्दि-प्रतिष्ठापाठ (प्रतिष्ठासारसंग्रह ) के चौथे परिच्छेद के पद्य हैं और उसमें क्रमशः नं० ७२, ७५, ७६, पर दर्ज हैं । इनमें पहला पद्य ज्यों का त्यों और शेष दोनों पद्य कुछ परिवर्तन के साथ उठा कर रक्खे गये हैं । दूसरे पद्य में 'दृष्टिर्भयं' की जगह 'इष्टर्भय', तथा' की जगह 'तदा' और ऊर्ध्वगा' की जगह ' ऊर्ध्वहक' बनाया गया है । और तीसरे पद्य में 'स्तब्धा ' की जगह 'सदा' और 'प्रदा भवेत् ' की जगह 'प्रदानह' का परिवर्तन किया गया है । ये सब परिवर्तन निरर्थक जान पड़ते हैं, 'तथा' की जगह 'तदा' का परिवर्तन भद्दा है और 'स्तब्धा ' की जगह 'सदा' के परिवर्तन ने तो अर्थ का अनर्थ ही कर दिया है। यही वजह है जो पन्नालालजी सोनी ने, अपने अनुवाद में, स्तब्धा दृष्टि के फल को भी ऊर्ध्व दृष्टि के फल के साथ जोड़ दिया है- अर्थात् शोक, उद्वेग, सन्ताप और धनक्षय को भी ऊर्ध्वदृष्टि का फल बतला दिया है * !
यहाँ इतना और भी जान लेना चाहिये कि पहले पद्यमें जिस दृष्टि-प्रकाशन की प्रेरणा की गई है, जिनबिम्ब की वह दृष्टि कैसी होनी चाहिये उसे बतलाने के लिये प्रतिष्ठापाठ में उसके अनन्तर ही निम्नलिखित दो पद्य और दिये हुए हैं
नात्यन्तोन्मीलिता स्तब्धा न विस्फारितमीलिता। तिर्यगूलमघोष्टिं वर्जयित्वा प्रयत्नतः ॥ ७३ ।
* यथा-"(प्रतिमा की) दृष्टि यदि ऊपरको हो तोलीका मरण होता है और वह शोक, उद्वगे, सन्ताप औरधनका क्षय करती है।" Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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