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[ २१ ] गया है और पहले पद्य के उत्तरार्ध में कुछ परिवर्तन किये गये हैं'चतुःशतं ' की जगह ' चतूरात्रं', 'जपन् ' की जगह 'जपेत्'
और 'लभेत् ' की जगह ' भवेत् ' बनाया गया है इन परिवर्तनों में से पिछले दो परिवर्तन निरर्थक हैं-उनकी कोई जरूरत ही न थी-और पहला परिवर्तन ज्ञानार्णव के मतसे विरुद्ध पड़ता है जिसके अनुसार कपन करने की प्रतिज्ञा की गई है - । ज्ञानार्णव के अनुसार 'चतुरक्षरी मंत्र का चारसौ संख्या प्रमाण जप करने वाला योगी एक उपवास के फलको पाता है। परन्तु यहाँ, जाप्य की संख्या का कोई नियम न देते हुए, चार रात्रि तक जप करने का विधान किया गया है और तब कहीं एक उपवास * का फल होना लिखा है । इससे x वह प्रतिक्षा-वाक्य इस प्रकार हैध्यानं तावदहं वदामि विदुषां ज्ञानार्णवे यन्मतम् ।
* पं० पन्नालालजी सोनी ने अपने अनुवाद में, "चार रात्रि पर्वत जप करें तो उन्हें मोक्षकी प्राप्ति होती है" ऐसा लिखा है और इससे यह जाना जाता है कि आपने उक्त ७५ वे पद्य में प्रयुक्त हुए 'चतुर्थे' शब्दका अर्थ उपवास न समझकर 'मोच' समझा है ! परन्तु यह आपकी बड़ी भूल है-मोक्ष इतना सस्ता है भी नहीं । इस पारिभाषिक शब्दका अर्थ यहाँ 'मोक्ष' (चतुर्थवर्ग ) न होकर 'चतुर्थ' नाम का उपवास है, जिसमें भोजन की चतुर्थ वेला तक निराहार रहना होता है । ७६ वें पद्य में प्रागुक्तं' पद के द्वारा जिस पूर्वकथित फल का उल्लेख किया गया है उसे ज्ञानार्णव के पूर्ववर्ती पध नं० ४६ में 'चतुर्थतपसः फलं लिखा है । इससे 'चतुर्थस्य फलं'
और 'चतुर्थतपसः फलं' दोनों एकार्थवाचक पद हैं और वे पूरे एक उपवास-फल के द्योतक हैं। पं० पनालालजी बाकलीवाल ने भी जानार्णव के अपने अनुवाद में, जिसे उन्होंने पं० जयचन्दजी की
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